भ्रांति पथ
उत्क्षेप नित अभिमान में
अनभिज्ञ है निर्वाण से तू,
अहं की अट्टालिका चढ़कर
स्वयं में ही बटोही !
सत्य है नश्वारता और
तू नहीं अविजित धरा पर,
तोड़ ले मतिभ्रम स्वयं का,
हो सकल जग का अद्रोही !!
मानता अक्षुण्ण निज को
नित्य तू मदमस्त हो,
कृतघ्नता और चरमपथ पर
दर्प भी दिखता प्रचंड !
तनिक ही झोंके में
सारा ही दिवाकर अस्त होता,
एक ओझल जीव ने अब
कर दिया सब खंड-खंड !!
हो गया कंगाल अरु
पाषाण सा बन रह गया तू,
त्याग दे भ्रम, अंत
अपलक देखता रह जाएगा !
वसन बिन प्रस्थान होगा
क्षार तन होगा मुशाफिर,
लंकपति भी टिक न पाए
तू भी क्या ले जायेगा !!
सकल जिजीविषा तेरी
एक दिन ढह जाएगी सब,
शुद्धमति के सह स्वयं को
द्वेष से तू मुक्त कर !
आचरण उत्कृष्टतम
जीवित तुझे रख जाएगा फिर,
तरणि भव से तारने अब
सत्कर्म धर्मयुक्त कर !!
– नवीन जोशी ‘नवल’
बुराड़ी, दिल्ली