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11 Jun 2020 · 3 min read

भ्रम या मतिभ्रम

बचपन में जब गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस का पाठ करता था तो यदा कदा कुछ चौपाइयों पर अल्पज्ञता के कारण कुछ शंकाएँ उत्पन्न हो जाती थीं जिनके समाधान हेतु अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति के अधीन हो तत्कालीन वरिष्ठजनों व विद्वानों के समक्ष जाता था और अपनी जिज्ञासा- क्षुधा शांत कर लेता था। परंतु जितने विद्वान संपर्क में थे उन्हीं से मार्गदर्शन मिल सकता था । कुछ शंकाएं ऐसी भी हृदय -प्रांगण में पैर पसारे रहीं जिनका समाधान नहीं मिल सका था। यथा – दो अर्ध चौपाइयां जो सदैव संशय में, भ्रम में डाले रहीं, निम्नवत हैं-
1. होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा।।
2. कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। जो जस कीन्ह सो तस फल चाखा।।
मेरे अनुसार प्रथम अर्ध चौपाई का भाव यह है कि जो भी परमेश्वर ने पूर्व निर्धारित व निश्चित कर रखा है, वही और केवल वही घटनाएं घटित होंगी अतः ईश्वर में पूर्ण आस्था रखते हुए कोई तर्क कुतर्क किसी होनी अनहोनी को लेकर नहीं करना चाहिए। जो प्रारब्ध में है वह निश्चित ही मिलेगा, अर्थात प्रारब्ध की प्रतीक्षा करनी चाहिए। इस प्रकार यह पंक्तियाँ अकर्मण्य रहने व भाग्य के सहारे रहने का उपदेश देती प्रतीत होती हैं।
जबकि दूसरी अर्द्ध चौपाई यह भाव प्रकट करती है कि प्रत्येक प्राणी को अपने कर्मों का फल अवश्य भोगना होगा अर्थात अच्छे कर्मों का अच्छा फल एवम बुरे कर्मों का बुरा फल भोगना होगा। यह दूसरी अर्द्ध चौपाई कर्मण्य होने की प्रेरणा देती है, सत्कर्म करने को प्रेरित करती है।
यहीं से मेरा भ्रम आरम्भ होता था कि एक ही विद्वान कवि ने अलग अलग दो स्थानों पर विरोधाभाषी विचार कैसे प्रस्तुत कर दिए। अपने संशय निवारण हेतु मैंने जिन विद्वानों का सानिध्य प्राप्त किया उन्होंने मुझे समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी होगी परंतु अल्पज्ञता वश मेरा संशय बना ही रहा जस का तस, तब तक, जब तक एक दिन मैं स्वभावतः यह चौपाई गुनगुना रहा था-
रामहिं केवल प्रेम पिआरा। जानि लेहि सो जाननिहारा।।
मैं गुनगुना ही रहा था कि सहसा मेरी अर्धांगिनी इसका गूढ़ अर्थ चुटकियों में बता गयी, जो निम्नवत है-
प्रत्येक प्राणी को प्रेम से वश में किया जा सकता है क्योंकि परमात्मा को प्रेमभाव सर्वाधिक प्रिय है और परमात्मा प्रत्येक प्राणी में बिना भेदभाव के निवास करता है। इसी रहस्य को जानने की आवश्यकता है।
मैंने चिंतन किया, मैंने मनन किया, तब मुझे निष्कर्ष मिला कि राम अर्थात परमात्मा अर्थात प्राणी अर्थात मैं स्वयं। अर्थात यदि मुझे कोई स्नेह करे तो मैं क्यों न सहज उसके वश में हो जाऊँ?
इस रहस्य को समझते ही मुझे उपरोक्त वर्णित दोनों अर्धचौपाइयों की विकराल गूढ़ता समझ में आ गयी। अपनी अर्धांगिनी को साधुवाद देते हुए मैंने अपनी जिज्ञासा व संशय दोनों को अल्पविराम दे दिया। वास्तव में दोनों अर्धचौपाइयों द्वारा अलग अलग मतों को प्रकट नहीं किया गया है, वरन दोनों एक समान एक दूसरे के पूरक अर्थ दे रही हैं। आवश्यकता केवल “राम” के स्थान पर “स्वयं” को रखने की है। अह्म वृह्मास्मि का भाव ध्यान रखना है, फिर अर्थ स्वतः स्पष्ट हो जाएगा।
प्रथम अर्धचौपाई का अर्थ होगा- आप वही करेंगे जो करने का आपने अपने मन में दृढ़ निश्चय कर रखा है, इस बात पर अनावश्यक तर्क करना व्यर्थ है।
दूसरी अर्धचौपाई का तात्पर्य है- आप जिस प्रकार के कर्म करेंगे निश्चित रूप से उसी प्रकार के फल भी प्राप्त करेंगे।
इस प्रकार उक्त पंक्तियाँ न केवल सत्कर्म करने की प्रेरणा दे रही हैं वरन दुष्कर्म का घातक परिणाम बताकर सचेत भी कर रही हैं।
किसी विद्वान संत द्वारा रचित इतने पावन महाकाव्य की गूढ़ पंक्तियों का तात्पर्य समझे बिना संदेह व संशय की स्थिति में रहना अल्पज्ञता का द्योतक है, जैसा कि मैं करता रहा। वास्तव में यह गूढ़ता बिना प्रभुकृपा के समझ में नहीं आ सकती। मैं परमात्मा को उसकी मुझ पर कृपा के लिए कोटिश: धन्यवाद देता हूँ। लोग पंक्तियों को समझ नहीं पाते हैं और वही अर्थ निकाल लेते हैं जो उन्हें प्रिय और लाभकारी लगता है।अर्थात आलस्यप्रेमी कहते हैं- जब वही होना है जो विधाता द्वारा पूर्व निर्धारित है तो परिश्रम क्यों करें, कर्म क्यों करें। जबकि श्रम समर्थक कहेंगे- प्रारब्ध के भरोसे नहीं बैठे रहना चाहिए, कर्म का मार्ग श्रेयस्कर है।

संजय नारायण

Language: Hindi
Tag: लेख
6 Likes · 2 Comments · 574 Views
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