भोर के ओस!
तुम भोर के ओस
साँझ के छटा से
मौन चुप-चाप
मन में बसे धीमे से
पाने जाऊँ तुमको तो
वाष्पित हो गुम हो जाते।
तुम वन के मोर
सावन के घटा से
मुझपे प्रेम बरसाते
मन मयूर बन नाचते
छूना चाहूँ तेरा मन तो
सरित से सागर में समा जाते।
तुम पतंग के डोर
मस्त बहते पवन से
मेरे चैतन्य को छूते
आत्मा को तराशते जैसे
बंधन बांधू तुमसे तो
दूर गगन में विलुप्त हो जाते।
तुम मृगतृष्णा के छोर
रेगिस्तान में तृप्ति से
मुझे छलते चले जाते
संग-संग आगे बढ़ते रहते
स्पर्श करना चाहूँ तुम्हें तो
आहट पाते ही लुप्त हो जाते।