भू से मिलकर नवजीवन की गाथाएं रचती हैं।
भू से मिलकर नवजीवन की गाथाएं रचती हैं।
बूँदे झरतीं मेघों से बन धाराएं बहती हैं।
इन ऊंचे पर्वत का जैसे पति ये सावन ही हो।
कभी तो लगता ऐसे जैसे मांग सुहागन की हो।
दूर से चमके चम चम चम चम चमकीली धाराएं।
पर्वत की चोटी से लगता चांदी बहती आये।
सभी धातुओं सभी द्रव्य से कीमती ये होती हैं।
भू से मिलकर नवजीवन —————————–।
सोख के इनको अपने उर में संचित कर लेती हैं।
जितना हो आँचल में अपने अर्जित कर लेती हैं।
सरस धरा होती जाती है दूर शुष्कता भागे।
फूली फली खूब है देखो भाग्य धरा के जागे।
नन्ही इन बूँदों से कितनी आशाएं फलती हैं।
भू से मिलकर नवजीवन——————————।
हुई चंचला सरिताएं सब इनके हैं क्या कहने।
मोती भर भर ले जातीं सागर साजन को देने।
वेग है इतना तट बन्धो को तोड़के बहती जाएं।
धैर्य का परिचय भी देती हैं बन्दी जब बन जाएं।
शांत सयानी बनकर पोखर तालों में रहती हैं।
भू से मिलकर नवजीवन——————————-।
वन , झाली , महुवारी लगता आठो याम हैं जागे।
पत्तों से बूंदे गिरतीं करती टप टप आवाजें।
डैने फड़ फड़ करके पँछी जल मोती बिखराते।
मीन तैरती खुश हो मस्ती में दादुर टर्राते।
स्वर संगम कर देती बूंदे जहां कहीँ गिरती हैं।
भू से मिलकर नवजीवन ———————————।