भूल:-जिंदगी की
भूल हुई हैं बहुतों मुझसे,
चाहा था किसी को पाने को।
ये भूल भी कितनी अजीब थी,
नसीब ही नहीं थी मिलाने को।
झुकते रहे हर पल नीचे हरदम,
सोचा सदा उसने हमें गिरने को।
घमंड हैं जब अब रिश्तों पे अपने,
तो अब नहीं जरूरत निभाने को।
भूल हुई थी खुद की अनादर की,
न अब हैं चाहत तुझे पाने को।
जब सम्मान के बदले अपमान मिले,
तो हम क्यों झेले ऐसे जमाने को।
खुश हैं और आगे खुश ही रहेंगे,
वास्ता तेरा न होगा मुझे मुस्कुराने को।
बख्श दे अब मुझे तेरे अभिमानी रिश्ते से,
काफी है हम अकेले नयी सफर में जाने को।
मेरे सभी अभिमानी रिश्तेदारों को समर्पित।
✍️✍️✍️खुशबू खातून