भूतकाल से सीख
आज पन्नों को पलटकर देखा, भूतकाल को मुड़कर देखा।
क्या खोया क्या पाया मैने, पूंछ्कर अपने दिल से देखा ।
कुछ मीठी यादें भी आई, कुछ दर्द के पल भी आए।
बिना किए वादे जो निभाए, याद वो हर एक फ़र्ज़ भी आए
ये पन्ने हैं बढ़ते ही जाते, पलटन इनकी ख़त्म न होती।
केसी हे ये डायरी, जो दिखने में लगती है छोटी।
“कुछ पन्नो में मोर पंख, कुछ मे रेखा थी अंकित
कुछ पन्नो में प्रश्नवाक्य सा, और कुछ में फूलो की पत्ती”
यादों के इस समावेश में , उस दौर के परिवेश में,
एक समय ऐसा भी आया, जहा निरंतर गम का साया ।
कौन था जिसने गम से उबारा,
कौन था जिसने ख़ुशी को लाया ।
सोचा तो जाना ये मैने,
ये सब समय का ही था बोला बाला।
“समय हुआ था धीमा जब इंतज़ार में था मै,
समय हुआ था तेज़ जब देर हो रहा था मै,
समय गया था शुन्य जब दुखी हुआ था मै,
समय हुआ था छोटा जब ख़ुशी में था मै,
समय हुआ था अंतहीन जब दर्द में था मै,
समय हुआ था लम्बा जब ऊब रहा था मै”
भूतकाल की यही निशानी,
परिभाषा अब समय की जानी।।
करता था जिसको घड़ियों से परिभाषित,
होता है वो भावनाओं से निर्धारित।।
आसान नहीं इसे समेटना ये भूतकाल की विवेचना
करता हूँ मैं अल्पविराम, दूँ ज़रा अपने दिल को आराम।।