भूख
शीर्षक – भूख
रचना – कविता
संक्षिप्त परिचय- राजेश कुमार बिंवाल ‘ज्ञानीचोर’
शोधार्थी व कवि साहित्यकार
मु.पो. रघुनाथगढ़, जिला सीकर,राजस्थान
मो.9001321438
शिक्षा -MA(हिन्दी)Bed,CTET,NET,JRF,Phd scholar (महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय, अजमेर)
मैले-कुचले कपड़े पहने,तन पर है कुछ चोट लगी।
भरे भावों से देखें सबकों,सब और लगाये टकटकी।
दो निवाले उतरे गलें में,फिरता सुबह-शाम लिये।
एक बैचेनी उसके उर में,कुछ मिल जाए भूख लिये।
खाने में कुछ गाली मिली,
पीने को कुछ आँसू।
दो चपाती पड़ी गाल पर,
बिलख-बिलखकर रोये है वो शिशु।
कुछ दूर चला वो गिरते-गिरते
उठते-पड़ते, रोते जाते।
सड़क किनारे पत्तों के ढेर,
जूठन खाने कुत्तों में फेर।
कुछ और भिखारी वहाँ पड़े हुए,
भूख मिटाने कुत्तें भी है अड़े हुए।
निकट किसी मंदिर में,
भंडारें है लगे हुए।
कर्म-धर्म के फंदो से,
कुछ मोटे-मोटे सेठ डटे हुए।।
चला वो क्षुदा-व्याकुल,उस ओर,
हाथ फेर पेट पर,देखा ! मचा वहाँ है शोर।
नन्हें-नन्हें हाथों का चला नहीं वहाँ कुछ जोर।
लगा कतार में,कुचल गया वो पैरों में,
क्या है कोई अपना,यहाँ इन गैरों में।
तन पर थी जो चोट लगी,निकला खून वहाँ से।
सेठ जो था हट्टा-कट्टा मूँछों वाला,
पूछ पड़ा तू आया कहाँ से।
पास खड़ी सेठानी बोली, दे दो इसको कुछ खाने को।
सेठ बोला- क्यों रहम करती हो इन पर,
ये औलाद भिखारी की।
चोरी-चकारी,लूटा-खोसी करते,
ये औलाद नहीं पुजारी की।।
चेतनता थी उस बच्चें में,
हुआ वो धिरे-धिरे उठ खड़ा।
सोच सका न कुछ भी वो तो,
सिसक-सिसक वो बिलख पड़ा।।
करहाते-करहाते करता है वो माँ को याद।
कौन सुने उसकी भूख से तड़फती फरियाद ?
करता है वो माँ को याद।
भूख से लदी है उसकी फरियाद।।
सुनते आये है हम सब, बच्चें होते भगवान स्वरूप।
हे जगदीश ! तेरी लीला तू ही जाने,
देख तेरे बन्दें के है कितने रूप।।
भूख सताती है तब,पत्थर भी पेट में पच जाती है।
क्या होगा उन बच्चों का,जिनको भूख सताती है।
देखो ! इन धन्ना सेठो को,कुत्तें बिल्ली पाले जाते है।
सूनसान फिजा में,भूखे बालक बिलखातें है।
मंदिरों में चढ़ते घी मेवे,
कहीं भंडारें,कहीं लंगरे,कहीं सदाव्रत बँटता होगा।
महलों के इर्द-गिर्द रहने वालो की,
कोई न सुध लेता होगा।
रोटी के दो टुकड़ों खातिर,
तड़फ-तड़फ मर जाना होगा।
वाह रे ! मेरे देशवासियों,
तुमने क्या इँसा पहचाना होग ?
भूख विचार करती कहाँ,हिंसा और अहिंसा का।
भूख सम्मान जगाये कैसे,तृप्ति और मनीषा का।
प्रियंका(धन) को गिनते जाते,लूट मचाये जाते है।
जब भूख द्वारे चढ़ती है,तो गाज गिराये जाते है।
निर्ममता इस जग मेंं फैली,शासन और दुशासन एक।
भूख मिटाने वालों का,
और लूट मचाने वालों का,दोनों का ही आसन एक।
भूखे बालक मरते है जब,बहस जोरो चल जाती है।
जीते जी टुकड़े न देते,मरते ही दाल गल जाती है।
इंसानियत शर्मसार हुई,ऐसे भाषण चल पड़ते है।
दूर सड़क किनारे कचरे में,उनके शव तो सड़ते है।
वाह रे! मेरे धरती के खुदा,टीवी में बैठ के लड़ते है।
सोचा है मैंने भी अब तो,भूख कैसे बढा़ऊँ मै ?
स्वर्गलोक का पालक लाऊँ,
और दिल – दरिया दिखलाऊँ। मैं।
भूखे मेरे इन बच्चों पर,अपना ध्यान लगाऊँ मैं।
हाड़-माँस चिपके है इनके,कैसे मंगल गाऊँ मैं।
दे दो मुझकों थोड़ी ताकत,हे अन्न-धन्न वालो।
थोड़ी चर्बी कर लो तुम कम,संसद को लूटने वालो।
जाड़े की रात बितायें कैसे,टुकुर-टुकुर ये देखे है।
पल दो पल के साँसों पर,जीवन के रंग को घोले है।
भूख मिटाये उदर की तो,बचपन इनका खोये है।
जीवनभर की भूख मिटाने,लम्बे-लम्बे आँसू रोये है।
पहनने को गम मिले है, ओढ़ने को भूख।
चलने में ठोकर मिले है,कोई मिले ना सुख।
हँसने को कुछ ना मिले है,झेलने को दु:ख।
कविता लेखन तिथि
12/11/2017,रविवार