मैं भूखा हूँ…
मैं भूखा हूँ…
अंदर बाहर सभी जगहों से भूखा हुं
मैं अपने ही दाँत से
अपने ही आंत को चबाता हुआ
वो इंसानी बच्चा हूँ … जो भूखा हूँ
मैं जन्मों से ही जरा सा रुखा हूँ
छप्पन भोग के उम्दा पेराई में
मेरे आंतों की रस्सियों की ऐंठाई में
मेरे दाँत कभी भी घिसे ही नही
अब तक मेरे दूध दाँत गिरे ही नही
मैं तो रह गया जूठी थाली के घेराइ में
अब ऊब चूका हूँ… अब डूब चुका हुं
भूख की गहराई में
अब मैं दरिद्री और भूख के
उस मुहाने पे हूँ…
जहाँ चबा जाऊंगा …
कुछ भी… कुछ भी
अब मैं तुम्हारे मंदिरों, मस्जिदों
गुरुद्वारा, गिरजा घरों को भी खा जाऊंगा
उसे पचा जाऊंगा, क्यूँ कि मैं भूखा हूँ
धर्म के प्रचंड बबंडर को
अपनी अंजुली में
गंगा जल की ही तरह धरूंगा
और खुद को नीलकंठ कर जाऊंगा
सूखा दूंगा हर उस सोता को
जो प्रकृति के सुंदर गोद से निकल
राजमहल के घाटों पे कैद हो जाती है
हमारे पपरियाये होंठ तक नही पहुँचती।
जिन हांथों ने, मेरी पीठ और कूल्हे से
सदियों तक खालें उतारी है,
उन हाथों को कंधे से उखाड़ फेकूंगा,
जिन टांगों में गिरकर अपने
सिर – नाक को फोड़ा हैं हमने सदियों तक
उन टांगों को चीर डालूंगा
मैं भीतर बाहर सब जगह से भूखा हूँ,
इस बार अपनी सभी भूखों का
इंतजाम खोजूंगा,
मैं निकलूंगा अपने भोजन के तलाश में
और उन जांघों को भी खोजूंगा
जिन पर न जाने मेरी कितनी
माँ, बहन, बेटियों को बैठाया गया होगा
उन्हें खोज निकलूंगा और
फाड़ डालूंगा, बीच से
उन छातियों को चीर,
उनके रक्त से अपनी सभी
माँ, बहन, बेटी के केश धोऊंगा
और पी जाऊंगा रक्तों के अंतिम बून्द तक को
क्यूँ की… मैं भूखा हूँ, बहुत भूखा
और अब बर्दास्त के बिल्कुल मुहाने पे खड़ा हूँ !
…सिद्धार्थ