भूख भी ख़ुद्दारी से हारी
दिवस का अंतिम प्रहर ,
घर की दहलीज भी हार चुकी, बाट जोह कर ।
जाने को तैयार है रवि भी,
किरण- रश्मियां भी असफल रहीं ,
ला न सकीं आशा खोजकर।
लॉक डाउन के चलते टूटे किबाड़ों से झांकती वो एक टक।
पीछे से आकर पल्लू खींच खींच बेचारा छोटू गया थक।
मुनिया बिना पूछे बार बार पतीला झांक जाती है।
मां उसकी और वह मां की बेवशी भांप जाती है।
चुपचाप आकर छोटू को ले जाती है फुसलाने।
आ बैठ मैं तुझको ले चलती हूं
अपने स्कूल दाल भात खिलाने।
चल जल्दी ला मेरा बस्ता दोनों संवरकर जाएंगे।
चल हट, पगली !मुझे उल्लू बनाती है।
कोरो ना फैला है,सब है बन्द काहे भूल जाती है।
अच्छा चल मैं तुझे कुछ और दिखाती हूं।
बंद कर आंखे सपने में तुझे खाना खिलाती हूं।
मुझे स्वप्न में नहीं सच में खाना है।
छोड़ दो सारी चतुराई, बहुत हुआ बहाना है।
आंखों में चमक सी आई ,पापा पड़े दिखाई।
मगर मां अब भी निराश होकर क्या तलाशती है।
उसकी दृष्टि खाली थैला ,खाली पेट ,
लाचार नज़रों को झांकती है।
जो सुन रही थी सुबह से, प्रेरित हो उसी से ,
प्रश्नों का जवाब मांगती है।
क्या हुआ फिर से खाली हाथ ,मिला नहीं राशन,
कुछ भी नहीं कर सकते एकसाथ धांगती है।
रोकर बेचारी बोली, कुछ तो वजह होगी,
पर मुझसे मां की आत्मा जवाब मांगती है।
भरके वो सिसकी बोला, मुझसे न ऐसा होगा ,
राशन के साथ मेरी फ़ोटो भी ले रहे थे।
पेमेंट न मिला है , राशन ख़तम है सच है ,
किन्तु न मैं भिखारी , दाता वो क्यूं दे रहे थे।
माता पिता की बातें,
चुपचाप चुप्पी साधे बच्चे वो सुन रहे थे।
छोटू यूं साहस भरके , क्षुब्धा से मुक्त होकर।
पापा कहो बड़ों से, माना समय कठिन है ,
जिंदा अभी है हममें, खुद्दारी वो हमारी,
करते हैं क्यों दिखावा वो दानवीर होकर।
रेखा जो दे रहे हैं ,उनसे कहो तो जाकर
आखिर क्यों काम ऐसा वो कर रहे हैं।