भूखा न हो कोई उदर
हे दिखावा के पुजारी, तेरा हृदय कम्पित नही
कान तुम्हारे बंद है, सिसकियाँ क्यों सुनते नही
बंद हुई आँखे क्यों, दौलत के इस भार से
कर क्यों न उठ रहा, दूसरों के उपकार में ।
किलकारियों की गूंज में, दफ़न हुए जस्वात क्यों
थोड़ा नीचे भी देखो, आंसूओं से भीगी साँस को
कहीं दूर फूस का घरौंदा, टिमटिमा रहा रातभर
अँधेरा से घिरे संसार में, ढूंढ़ता रहा प्रकाश को ।
आज धुआं न उठा, नहीं मिली चूल्हा को आग
नन्हा भूख से जूझ रहा, न नसीब खेतों की साग
मुठ्ठीभर भूख को, नित्य निवाला क्यों नही !
बूढी पलके आस में, निहारती रही रोज क्यों ।
भरी थाली पास उनके, जिनको देखो भूख नही
भूख से ज्यादा लेकर बैठे,इसमें कोई शान नहीं
अन्न का न हो अपमान, फेको न इसे कूड़ों में
इतना लो थाली में, कि व्यर्थ न जाए नाली में ।
//श्याम कुमार कोलारे//