भुला
उम्र के हर पड़ाव पर कुछ न कुछ भूल जाता हूं मैं
न जाने कैसी बीमारी है यह जिसे भूल जाता हूं मैं
भूखा ना रहे इस जहां में कोई हर पल सोचता हूं मैं
मगर न जाने खाना झुठा छोड़ते ये भूल जाता हूं मैं
रोता हूं देख कर जमाने भर के दुखों को मैं
किसी के दुख दूर कर दूं मैं खुद ही भूल जाता हूं मैं
वह झूठा वह चोर भ्रष्टाचारी सबको पहचान लेता हूं मैं
पहचानते वक्त इनको खुद क्या हूं ये भूल जाता हूं मैं
आसान रास्ते हर मंजिल के लिए ढूंढ लेता हूं मैं मगर क्या है मेरी असली मंजिल जहान में भूल जाता हूं मैं
रोटी कपड़ा सड़क मकान दवा सब सब को दूंगा मैं चुनाव जाते ही सबकुछ न जाने कैसे भूल जाता हूं मैं।
Sandeep anand