भीष्म वध
कुरुक्षेत्र में शंखनाद संग शुरू हुई लड़ाई
भिड़े योद्धा श्रेष्ठ, टुटे भाई पे भाई
युद्ध हुआ जाता था भीषण होता पूर्ण विनाश
धरती पे पटे थे शव, रक्ताक्त आकाश
संघर्ष के बीते आठ दिन पर ना बदला दृश्य
अधर्मियों की सेना मानो लगती थी अस्पृश्य
पांडव सेना का होता था भीषण नरसंहार
और दुष्ट कौरवो की रक्षा करती एक बूढ़ी तलवार
एक हाथ संघार करे दूजे से दुष्ट बचाये,
कौरवो का वह रक्षक ‘गंगापुत्र’, ‘भीष्म’ कहाये
सेनापति था कुरुओ का वह योद्धा सर्वश्रेष्ठ
और जितने वीर थे रण में था वह सबका ज्येष्ठ
नौवे दिन भी वही हाल देख माधव हुए व्यथित
उठ लड़ने चल दिए भीष्म से वह पांडवो के हित
अर्जुन बीच में आया ‘केशव! ये क्या किये जाते है
न शस्त्र उठाने की शपथ आप भंग किये जाते है!’
माधव बोले क्रोध में ‘अर्जुन! सोचो कुछ उपाय
अन्यथा अभी इसी क्षण कर दूंगा मै तुम्हरे संग न्याय!
इस धर्म युद्ध को जीतना है तोह तुमको कुछ करना होगा!
सामने खड़े इस ‘भीष्म’ संकट को तुमको हरना होगा!’
अर्जुन विनत भाव से बोला ‘माधव आप होइए शांत
वापस पधारे रथ पे सोचेंगे उसके उपरान्त’
कैसे पराजित हो पितामाह,चिंतन में पांचो भाई
उसी क्षण श्री कृष्ण ने आके, युक्ति एक सुझाई
‘कुरुवंश के रक्षक है वे, इसलिए लड़ते है
पर वह दादा है तुम सबके, स्नेह अपार करते है
उस रिश्ते से मिलो उनसे और पूछो ये उपाय
कैसे मात दे हम उनको, कैसे उनको हराये?’
पांचो पांडव मिलने पहोचे अपने ज्येष्ठ दादा से
संग बैठाया, स्नेह दिखाया, प्रशंसा न रूकती मुख से
अपने पांचो पोतो पे था, उस बूढ़े को अभिमान
रणभूमि पे दिखा वीरता, बढ़ाते पाण्डु की वह शान
पूछा जब युधिष्ठिर ने की कैसे आपको हराये
तनिक संकोच न किया भीष्म ने तुरंत दिया बताये
‘एक ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ ली मैंने, उसका पालन करता हू
सब लोभ राज का त्याग दिया, नारी पे वार न करता हू
उस प्रतिज्ञा से प्रसन्न हो पिता ने दिया वरदान
इच्छा मृत्यु प्राप्त मुझे, मेरे बस में मेरे प्राण!
मार न मुझको सकते तुम, पर इतना कर सकते हो
की रणभूमि एक स्थल पे चित्त मुझे कर सकते हो
है तुम्हरी सेना में एक वीर, शिखंडी नाम उसका
द्रुपद का पुत्र है वह, पांचाल है राज्य उसका
युद्ध से पहले स्त्री था वह, उसपे ना वार करूँगा
उसको सामने देख के, मै अपना धनुष धरूंगा
उसी क्षण मौका होगा, पीछे न हटना मै न हटूंगा
है आश्वस्त किया दुर्योधन को, कल युद्ध समाप्त करूँगा!’
राज़ बताके अपना ये, उस बूढ़े ने दी विदाई
युद्ध छिड़ा दसवे दिन का, और अंत घड़ी वो आयी
पर फिर विचलित हुआ अर्जुन, पूछा उसने केशव से
‘चला दिया जो तीर ऐसे, तोह तातश्री मरेंगे छल से
इस निहत्थे बूढ़े पर मै कैसे करदू वार?
महानीच, कायर, पापी मुझको समझेगा संसार!’
केशव बोले ‘अर्जुन! तुम समय व्यर्थ करते हो
क्या सोचेगा ये समाज, इससे तुम बहोत डरते हो
मत भूलो उस सभा में पितामह रहे थे मौन
जो ये बीच में बोले होते, तोह करता दुष्कर्म कौन
त्रेता युग में मारा था मैंने, एक महावीर बलशाली
था किष्किंधा का राजा वो, नाम था उसका बाली
नीच! अधर्मी! वानर वो, उसने कुकर्म करा था
और छोटे भाई की पत्नी को, संग अपने वरा था!
उस पापी पर चलाया मैंने, पीछे से बाण
और समझो चाहे छल इसे, पर ऐसे ही हरे उसके प्राण
उस अधर्मी का वध करके, रखी धर्म की नींव
फिर किष्किंधा का राजा हुआ, उसका भाई सुग्रीव
जो न्याय धर्म के लिए ज़रूरी, मैं वह सब करता हूँ
और उसके लिए कुछ बुरे कर्म करने से मै न डरता हूँ
धर्म स्थापना ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है!
चलो पार्थ! तीर चलाओ पितामह खड़े समक्ष है!’
अर्जुन ने साध निशाना, छोड़े बहोत से तीर
और रथ से गिरा, शैया पे लेटा, वह बूढ़ा रणधीर
हाथ न हिलते उसके देखो, न बोला कुछ जाए
अंत में बोला ‘हे अर्जुन! इस मस्तक को दो उठाये’
अर्जुन ने दो तीर दाग, किया गांगेय का सर ऊँचा
ठीक उसी क्षण दुर्योधन भी, भाइयो संग आ पहुंचा
खूब विलाप करते थे सब जन, उनको समझ न आये
और कितनो को खा जाएगा, धर्म युद्ध ये हाय!
माधव देखे सब जाते थे, जानते ये सिर्फ एक झांकी थी
अभी और अश्रु थे बहने वाले और लड़ाई बाकी थी