भीड़
कहा सोचती है यह भीड़
कुचलती हुई आगेबढ़ती है ये भीड़,
घमंड से सरोबार, बस मारती है ये
वैशी भीड़,
रौंदती है
बूढ़ी माँ की लाठी को
चार साल के बच्चे को
नयी नवेली दुल्हन को
माँग के सिंदूर को
जवान बेटे को
कलाई की राखी को
पनप ना पाए सब रिश्तों को
रौद्र का तांडव है ये भीड़
रावण का अभिमान है ये भीड़
महिसासुर का प्राण है ये भीड़
दुर्योधन की शान है ये भीड़
बाली का वरदान है ये भीड़
सुदर्शन का संहार है ये भीड़
त्रिनेत्र की ज्वाला है ये भीड़
काली का अभिशाप है ये भीड़
जीती जागती भूत है, पिशाच है ये भीड़,
अरे, मारना ही है तो
मारो अपने अंदर के
हैवान को,
डर को,
मौत से होते फ़ायदे को,
सौदागर को ख़रीदार को,
रौंदती किफ़ायतो को,
ग़ुस्से को, उन्मत्ता को,
क्रुद्ध अविश्वास को,
मूर्ख भय को,
ईर्ष्यालु मन को,
आक्रामक तन को।
पर कहाँ सुनतीं है,
ख़ुद को रौंदती हुई
आगे बढ़ती ये भीड़ ।
३ अक्तूबर, २०१७