भीड़
भीड़ में भीड़ से
परेशान मैं
खो गया हूँ
पता नहीं, ठिकाना नहीं
ढूंढता फिर रहा
भीड़ में भीड़ से अलग
स्वयं की पहचान मैं।
याद नहीं किस्सा
कैसे, किस तरह, न चाहते हुए भी
बन गया मैं
अंधी भीड़ का हिस्सा
अब निकलने की दीखती कोई राह नहीं
जीने की चाह नहीं
क्यों न कर दूँ भीड़ को समर्पित
बची-खुची जान मैं।
फिर सोचता हूँ
नहीं नहीं ठीक नहीं समर्पण
आखिर भीड़ में अंधाधुंध भागती भीड़ के
पद तले कुचल कर वैसे भी मरना है
मरने से पहले बचने का
कुछ तो प्रयत्न करना है।
मैने पूछा
ऐ भीड़ तुम्हारी जात क्या धर्म क्या
लक्ष्य क्या, कर्म क्या
ट्रेन में बस में
कहीं नहीं तुम वश में
फिल्मी अभिनेता हो
दबंग हो, नेता हो
दारू दुकान हो, ठेका हो ताड़ी का
चाहे खेल हो मदारी का
जरा नहीं धीर
हर जगह दौड़ पडती क्यों भीड।
नियम न कानून कोई
प्रयोजन न कारण कोई
बदहवास बदहाल
ऐ नासमझ भीड़
होता रहा है तुम्हारा इस्तेमाल।
हर बार इच्छा विरुद्ध
पता नहीं कब मैं भी
बन जाता तुम्हारा हिस्सा
फिर ऐसे ही छटपटाता मचलता
ढूंढता अपनी पहचान मैं
अंततः भीड़ में भीड़ के पैरों तले
दे देता जान मैं।