भीड़ में हाथ छोड़ दिया….
भीड़ में हाथ छोड़ दिया….
कभी देखता इधर उधर था
विचरता इस गली उस डगर था
इक विश्वास को ही तोड़ दिया
भीड़ में यूँ हाथ छोड़ दिया।
चहुँ ओर एक मेला सा था
कुछ पल छिन का रेला ही था
दौड़ रहे सरपट सब यहीं
मेरे अपने न दिखते कहीं
पथ कोई तो दिखला देना
जीना मुझे भी सिखला देना
दर बदर अनायास घूमता
सबब प्रतिपल ही खोजता
आज खुद से ही घबरा उठा
भीतर कोई मेरे रूठा
ऐब कदाचित नही जानता
अब किसी को न पहचानता
रंग दुनिया ने अजब दिखाया
पीड़ा ने अब विकल बनाया
संग मेरे अनाम जोड़ दिया
भीड़ में यूँ हाथ छोड़ दिया
पहचान मेरी अब खो गई
खुशियाँ अलहदा सी सो गई
दुःख,दर्द मेरी ओर मोड़ दिया
भीड़ में यूँ हाथ छोड़ दिया।
कभी सूखे पत्ते सा बिखरा
कहीं तपन तमस से भी घिरा
पग रज सा बन उड़ेल दिया
भीड़ में यूँ हाथ छोड़ दिया।।
✍”कविता चौहान”
स्वरचित एवं मौलिक