भीगे हैं अश्क़ों से सारे भरम
दहलीज़-ए-दिल पे आके रुकी
ज़िन्दगी जैसे थम सी गई
चलना ज़रूरी हाँ था बहुत
नज़रें मगर मुड़ ही गई
यादें तेरी इस दिल में बसी
तूने दिए पर दिल को ज़ख़म
आंखें मेरी इतनी ज़्यादा नम
भीगे है अश्क़ों से सारे भरम।
दस्तक हो जब भी दरवाज़े पे
मुझको लगे तेरी आमद हुई
पत्तों पे चरमर सी आवाज़ हो
मुझको लगे तेरी आहट हुई
शिक़वे गिलों के मौसम हसीं
क्यों लौटके फिर आते नहीं
तुम झूठी ही खालों न कसम
मेरी बनोगी तुम हर जनम
आंखें मेरी इतनी ज़्यादा नम
भीगे हैं अश्क़ों से सारे भरम।
खोके तुम्हें मैं बिखर ही गया
आओ समेटों मुझको कभी
मैं डूबता सूरज बन ही गया
डूबते मुझको देखों कभी
जगह धनक में मिल न सकी
मैं हूँ वो काला रंग सनम
आंखें मेरी इतनी ज़्यादा नम
भीगे हैं अश्क़ों से सारे भरम।
-जॉनी अहमद ‘क़ैस’