भिखारी हूँ! भिखारी हूँ!
‘भिखारी हूँ ! भिखारी हूँ ! (कविता)
भूख जब रोंदती उर को
निवाला खोजता था मैं।
बहुत तकलीफ़ होती थी
जेब जब नोंचता था मैं।
पढ़ाया गर मुझे होता
न निर्धन हाल तब होता।
न तकता ढेर कूड़ों के
न शोषित काल तब होता।
महल में वास करते जो
घरों में पालते कुत्ते।
बीनते हाथ जब देखे
जीभ से चाटते कुत्ते।
ठिठुरती सर्द रातों में
निर्वसन देह रोती थी।
सिसक आहें बहुत भरता
गरीबी चैन खोती थी।
किसी कोने पड़ा देखा
शराबी झट समझ डाला।
तरस न आया लोगों को
लूट कर मुँह किया काला।
कई दिन भूख से तड़पा
खत्म खुद को किया मैंने।
जलाए अंग एसिड से
अपाहिज तन किया मैंने।
बह रहा रक्त ज़ख्मों से
रिस रहा घाव से पानी।
बेबसी हँस रही मुझ पर
चिढ़ाती मुँह है जवानी।
भिखारी जाति है मेरी
कर्म से भी भिखारी हूँ।
नहीं कुछ शर्म कहने में
भिखारी हूँ ! भिखारी हूँ!
स्वरचित/मौलिक
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी (उ. प्र.)
मैं डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना” यह प्रमाणित करती हूँ कि” भिखारी हूँ ! भिखारी हूँ!” कविता मेरा स्वरचित मौलिक सृजन है। इसके लिए मैं हर तरह से प्रतिबद्ध हूँ।