भाषा का बोझ
गांव की राजस्थान क्लब के सदस्यों द्वारा कुछ दिनों बाद एक नाटक का मंचन होना था।
ये क्लब हिंदी भाषियों की सांस्कृतिक गोष्ठी की जगह थी उस समय।
क्लब का पुस्तकालय भी समृद्ध था। हिंदी साहित्य की पुस्तकों और लगभग सभी मासिक पत्रिकाओं की एक मात्र संग्राहक भी थी।
रिहर्सल के समय, अमर भाई भी आ टपके। कुछ देर गौर से साथियों का अभिनय देख कर उनके अंदर के कलाकार ने भी अंगड़ाई लेनी शुरू कर दी।
रिहर्सल खत्म होते ही, निर्देशक से जिद कर बैठे कि, उन्हें भी किसी चरित्र में खपा दें। निर्देशक के आना कानी करने पर हलवाई की दुकान से चाय और समोसे का प्रलोभन दे बैठे।
ये सुनकर निर्देशक महोदय के दिमाग की बत्ती जल उठी, शाम के वक्त मुफ्त के चाय और समोसे की पेशकश कौन ठुकराता भला ?
बोले, कल शाम को आना, एक छोटा सा रोल है तुम्हारे लिए,
ये कहकर, उनका हाथ पकड़ कर हलवाई की दुकान की ओर तेजी से चल पड़े ,कि अमर भाई छोटा रोल सुनकर कहीं अपना मन न बदल दें।
रास्ते में निर्देशक बोलते भी जा रहे थे ,चरित्र छोटा हो या बड़ा इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, बस उसको अच्छी तरह से निभाना जरूरी है, फिर दर्शकों से तालियाँ लेना कोई बड़ी बात नहीं है।
चाय और समोसा पेट में जाते ही ये गुंजाइश भी तलाशी जाने लगी कि अगर कोई कलाकार लगातार रिहर्सल के समय अनुपस्थित रहा तो अमर भाई बड़ा रोल भी पा सकते है, पर इसके लिए उन्हें रोज आना होगा,
रिहर्सल पर भी और उसके बाद हलवाई की दुकान पर भी!!!
अमर भाई आश्ववस्त होकर लौट गए।
दूसरे दिन रिहर्सल पर पहुँचे तो निर्देशक ने कहा, आप इस नाटक में एक चश्मदीद गवाह की भूमिका में हैं, पुलिस जब मुजरिम की पहचान के लिए बुलायेगी, तब आपको मुजरिम को देख कर बस इतना ही कहना है कि,
“ये वही आदमी है साहब”
अमर भाई ने हाँ मे सर हिला दिया।
जैसे ही मुजरिम को लाया गया, अमर भाई अपनी बुलंद आवाज़ में बोल पड़े,
“ए ओही आदमी है साहब”
निर्देशक की लाख कोशिश उनसे ‘ये वही” नहीं बुलवा सकी
ज्यादा बोलने पर खीज कर बोल पड़ते कि “हम भी तो ओही बोल रहे हैं”
निर्देशक ने फिर ये सोच कर संतोष किया कि गवाह कोई देहाती भी तो हो सकता है जिसकी जुबान ही ऐसी हो।
शाम को फिर चाय समोसे जो खाने थे, साथ ही अमर भाई को अभिनय की बारीकियां भी समझानी थी।
बहुत सालों बाद जब भाईसाहब ने इस घटना का जिक्र किया तो उनके साथ मैं भी हंस पड़ा।
अचानक एक और घटना दिमाग मे कौंध गयी।
जब मैं सात या आठ वर्ष का था , एक बार अपने ननिहाल गया था।
वहाँ सब सुसंस्कृत थे और हिंदी में ही बात किया करते थे।
चौके में अपनी छोटी बहन को लेकर खाना खाने गया, मेरी एक भाभी जी जो कानपुर की थी, खाना परोस रही थी, उनको देख कर मैं अपनी छोटी बहन की ओर इशारा करके मारवाड़ी में बोल पड़ा,
“या मेरी छोटी भैन ह”
(ये मेरी छोटी बहन है)
मेरी भाषा सुनकर वो हंस पड़ी, वो मुझसे हिंदी भाषा की अपेक्षा में थीं शायद।
पर मुझे तो उस वक़्त सिर्फ ये भाषा ही आती थी,जिसमे मैं अपने भाव व्यक्त कर सकता था।
इसी तरह कमरे को मैं “कोठड़ी” कहता था।
इस बात का जिक्र वहाँ बहुत दिनों तक हंसी मजाक मे होता रहा।
मुझे लगा कि ये कोई पिछड़ेपन की निशानी है। कुंठा भी महसूस हुई कभी कभी।
बड़े मामाजी नामवर वकील थे , हिंदी, अंग्रेजी और अन्य कई विषयों पर गहरी पकड़ रखते थे,
एक बार मेरी ममेरी बहन की कॉपी में पानी गिरने पर बोल पड़े,
” इस कॉपी में लिखे अक्षर तो भुजण(मिट) गए”
मेरी वाचाल ममेरी बहन तुरंत बोल पड़ी, पिताजी आप तो हिंदी में मारवाड़ी शब्द मिला बैठे,
मेरे गंभीर मामाजी भी मुस्कुराए बगैर न रह सके।
खैर, मुझ पर मेरे शब्दों और भाषा का बोझ लंबे अरसे तक रहा।
हिंदी और अन्य भाषायें बोलने वालों पर, देश की अंग्रेज़ी भी इसी तरह उपहास करती आ रही है अब तक।
अन्य भाषायें भी एक दूसरे को कभी कभी अजनबी मान ही लेती हैं।
कोरोना के समय, हाल ही में, एक आंग्ल भारतीय पत्रकार कोलकाता के चांदनी चौक इलाके में एक मजदूर से पूछ बैठा,
” टुम मास्क नई पैना”
मजदूर इस नागवार प्रश्न से, अपनी ठेठ भाषा मे गालियां बकता रहा , उसे इंग्लैंड जाने तक का मशवरा भी दे दिया।
पत्रकार उसे समझाता रहा कि वो यहीं पैदा हुआ है, पर उसकी एक भी नहीं सुनी गई, गालियां बदस्तूर जारी रही।
पत्रकार पर भी तो दो सौ वर्षों के अंग्रेजों के शासन और भाषा का बोझ था!!!