भावो को पिरोता हु
भावों को पिरोता हूं
मेरे हिसाब की डायरी शब्दो का जुगाड नही
मैने लिखी थी शायरी भावो का जुगाड़ नहीं
महसूस करता मैं उसे शब्दों में पिरोता हूँ
कर महसुस आडम्बर मन से, व्यंग बाण चलाया था।
चलती कलम मेरी मन से ,देख जबान चलायी थीं ।
महसूस करता में जिसे ,शब्दों में पिरोता हूँ
प्रेम व्यंग पनपता नही, सान्त्वना की चादर से
नोट मेरा निकलता नहीं ,नोट करने की आदत से
महसूस करता मैं, जिसे शब्दों में पिरोता हूँ
गलती मुझसे जलती रही, बिन साधना की त्याग से.
निगाहे मेरी चलती रही ,कमर बन्द की परिहास से
महसूस करता मै जिसे, शब्दो में पिरोता हूँ
सोच समझ की पार कर रेखा, नयी सोच पिरोता हूँ।
खोज बिन को मार कर देखा, अपना पन रोज मिलाता हूँ
महसूस करता मैं उसे, शब्दों में पिरोता हूँ