भावों उर्मियाँ ( कुंडलिया संग्रह)
समीक्ष्य कृति: भावों की उर्मियाँ ( कुंडलिया संग्रह)
कवयित्री- शकुन्तला अग्रवाल ‘शकुन’
प्रकाशन वर्ष- 2021
प्रकाशक- साहित्यागार, जयपुर
मूल्य- ₹ 200 ( सजिल्द)
कुंडलिया एक लोककाव्य विधा है। इस छंद को लोककाव्य बनाने का श्रेय जाता है- गिरिधर को। जिनकी कुंडलिया आज भी जनमानस में रची-बसी हैं। आदिकाल से आधुनिक काल तक अनेकानेक कवि इस छंद में भावाभिव्यक्ति करते रहे हैं। आधुनिक काल में लोक काव्य की इस धारा के प्रवाह में अवरोध अवश्य आया परंतु वर्तमान समय में प्रभूत मात्रा में कुंडलिया छंद सृजित हो रहे हैं और कृतियाँ भी प्रकाशित हो रही है। हाल ही में प्रकाशित कुंडलिया छंद का एक संग्रह ” भावों की उर्मियाँ” मुझे कुछ दिन पूर्व प्राप्त हुआ। आदरणीया शकुन्तला अग्रवाल ‘शकुन’ जी ने अपनी इस कृति को मेरे पास समीक्षार्थ भेजा। इस पुस्तक में 252 कुंडलिया छंद हैं।इसकी भूमिका लिखी है वसंत जमशेदपुरी जी। इस पुस्तक का मुख्य आकर्षण है- कुंडलिया छंद पर आद अमरनाथ जी का शोधपरक आलेख जो कुंडलिया छंद के विषय में तथ्यात्मक और ऐतिहासिक जानकारी उपलब्ध कराई है। इस कृति के समस्त छंदों को कवयित्री ने एक शीर्षक दिया है। यह अपने आपमें एक श्रमसाध्य कार्य है।सहज – सरल एवं प्रांजल भाषा में रचित इस कृति के सभी कुंडलिया छंद भावपूर्ण एवं सरस हैं।
आज युग भौतिकता से ओत-प्रोत है। भौतिकता हमें समाज और अपनों पर कुठाराघात करती है। मन क्षुब्ध हो जाता है। ऐसे माहौल में एक कवि हृदय का अकुलाहट से भर जाना और एक ऐसे स्थान की तलाश करना,जहाँ स्वार्थ-सना संसार न हो, स्वाभाविक है। शकुन जी का एक कुंडलिया जो इस तरह के भाव को व्यक्त करता है, द्रष्टव्य है-
साजन चलते हैं चलो,हम तुम नभ के पार।
अब मुझको भाता नहीं, देखो यह संसार।
देखो यह संसार, भरा है खुदगर्जी से।
त्याग सभी संस्कार, रहें सब मनमर्जी से।
कैसे महकें गात, प्रीत का रूठा सावन।
मानो मेरी बात चलो चलते हैं साजन।।11 ( पृष्ठ 30)
हमारे देश सेना सदैव देश रक्षा के लिए तत्पर रहती है। सेना केवल बाह्य शत्रुओं से ही देश की सीमाओं की रक्षा नहीं करती अपितु देश आंतरिक हालात को भी सामान्य बनाने में अपना योगदान करती है। जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो सेना के जवान देश के आम नागरिकों की सुरक्षा और संरक्षा हेतु संन्नद्ध दिखाई देते हैं।ऐसे जांबाज वीरों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हुआ शकुन जी का एक छंद अवलोकनीय है-
प्रहरी बनकर है खड़ा,माँ का सच्चा लाल।
माता पर डाले नज़र, उसकी खींचे खाल।
उसकी खींचे खाल,त्याग निज हित वो सारे।
ऐसी ठोंके ताल, शत्रु पल में ही हारे।
लेकर आते जीत, बात समझो तो गहरी।
गर्मी चाहे शीत, डटे रहते हैं प्रहरी।। 24 ( पृष्ठ-34)
पर्यावरण संरक्षण आज की सबसे बड़ी जरूरत है।जिस तरह मानव स्वार्थ में अंधा होकर पेड़-पौधे और जंगलों को नुकसान पहुँचा रहा है वह निंदनीय होने के साथ-साथ चिंता का विषय भी है। बढ़ता हुआ प्रदूषण और गिरता भू-जल-स्तर आने वाली पीढियों के अस्तित्व पर एक प्रश्न-चिह्न है। देश के सजग नागरिक के नाते हमारा यह कर्तव्य है कि हम इसके लिए लोगों को जागरूक करें। कवयित्री ने अपने एक छंद के माध्यम से लोगों का ध्यान आकृष्ट करने का महत्त्वपूर्ण प्रयास किया है-
तरुवर, तरुवर से कहे, बचकर रहना यार।
जाने कब चलने लगे,स्वारथ की तलवार।
स्वारथ की तलवार ,खींचता पल में मानव।
मानवता को मार, मनुज बन जाता दानव।
सरित कूप हैं शुष्क, पड़े हैं खाली सरवर।
फीके सारे रंग, कटे हैं जब से तरुवर।।46 ( पृष्ठ-42)
बेवफाई सदैव दुखदायी होती है। बेवफाई यदि प्यार में मिले तो जीवन की दशा और दिशा दोनों बदल जाते हैं। बेवफाई को लेकर रचा गया वियोग श्रृंगार का एक छंद जो बेहद मार्मिक है-
बूँदें ढलकी नैन से, मन में दर्द अथाह।
चला गया वो बेवफा, होकर बेपरवाह।
होकर बेपरवाह, अकेला छोड़ा मुझको।
मुख से निकले आह, बताऊँ कैसे तुझको।
विरह लगाए घात, रोज तन मन को गूँदें।
कहती मन की बात, गाल पर ढलकी बूँदें।।81 ( पृष्ठ-53)
कवयित्री ने जहाँ एक ओर समसामयिक विषयों को अपने छंदों का विषय बनाया है वहीं नीति विषयक छंदों को भी प्रमुखता दी है। अकर्मण्यता कभी भी वरेण्य नहीं रही। कर्मशीलता को ही सदैव पूज्य और आदर्श माना गया है। ज़िंदगी में सफलता और खुशियों की सौगात उसे ही मिलती है जो सतत् परिश्रम करता है। शकुन जी यह कुंडलिया छंद आलस्य को त्याज्य और मेहनत को अपनाने की प्रेरणा देता है-
बैठे-ठाले को यहाँ, कब मिलता सम्मान?
श्रम करता है रात-दिन,फलते तब अरमान।
तब फलते अरमान, खुशी देती है दस्तक।
बढ़ जाती है शान, झुकाती दुनिया मस्तक।
आलस देना त्याग,खुले खुशियों के ताले।
कब मिलती सौगात, जीत की बैठे-ठाले।।159 ( पृष्ठ-79)
समाज में महिलाओं के प्रति बढ़ता अत्याचार और व्यभिचार निंद्य और चिंतनीय है। कवयित्री ने बलात्कार जैसे घृणित अपराध पर जो आक्रोश व्यक्त किया है वह उसकी संवेदनशीलता को दर्शाता है।
जो डाले गंदी नज़र, उसकी आँखें फोड़।
जो तेरा दामन छुएँ, उन हाथों को तोड़।
उन हाथों को तोड़, रूप चंडी का धर के।
देना सीना चीर,दुशासन जैसे नर के।
करते जो व्यभिचार, करो मुख उनके काले।
देना उनको काट, हाथ तुझ पर जो डाले।।241 ( पृष्ठ-107)
समाज के प्रत्येक पक्ष और विद्रूपता को कवयित्री ने अपनी गहरी समझ और चिंतन में ढालकर कुंडलिया छंद को एक व्यापक फलक प्रदान किया है।
इस महत्वपूर्ण कृति में यदि उल्लेख्य विशेषताएँ हैं तो कुछ खामियाँ भी हैं, जो खटकती हैं और चंद्रमा में दाग की तरह हैं।
छंद संख्या-1 में वचन दोष है- भावों की मकरंद।छंद संख्या 137 में विधु-बदनी शब्द का प्रयोग किया गया है जबकि ‘विधु-वदनी’ होना चाहिए था। बदन का अर्थ शरीर होता है और वदन का मुखमंडल। छंद संख्या-3 का आरंभ ‘हो आलोकित’ से किया गया है जबकि समापन ‘आलोकित’ शब्द से , जबकि छंद का अंत ‘ हो आलोकित ‘ से होना चाहिए था। छंद संख्या 41की शुरुआत ‘मेरे हिंदुस्तान की’ से की गई है जबकि समापन एक अलग शब्द ‘हेरे’ से है- ईश भक्तों को हेरे।( पृष्ठ 40) कुछ इसी तरह का दोष छंद -52 ,60, 69,90, 131,166, 230, 235 में भी है। जिनमें जाने- अनजाने में कवयित्री द्वारा छंद का समापन उस शब्द या शब्द समूह से करने में चूक हुई है। यदि इन त्रुटियों को सुधारने की कोशिश की जाती तो कृति पूर्णतः निर्दोष और छंद के मानक रूप को प्रस्तुत करती।
अस्तु, कुंडलिया छंद के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु किया गया ‘शकुन’ का प्रयास श्लाघनीय है। भावों की उर्मियाँ एक पठनीय और संग्रहणीय कृति है। कवयित्री को इस कृति के लिए अशेष शुभकामनाएँ ।
समीक्षक
डाॅ बिपिन पाण्डेय
रुड़की (उत्तराखंड)