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9 Apr 2022 · 6 min read

भारत के इतिहास में मुरादाबाद का स्थान

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम : भारत के इतिहास में मुरादाबाद का स्थान
लेखक: डॉ. अजय कुमार अग्रवाल अनुपम 47 श्री राम विहार ,कचहरी ,मुरादाबाद
प्रथम संस्करण 2021
मूल्य ₹500
प्रकाशक : विनसर पब्लिशिंग ,देहरादून उत्तराखंड
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समीक्षक : रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा रामपुर उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451
■■■■■■■■■■■■■■■■■■■ डॉ अजय अनुपम और ठाकुरद्वारा का इतिहास
■■■■■■■■■■■■■■■■■■■
मुरादाबाद जनपद की एक तहसील के रूप में ठाकुरद्वारा की राजनीतिक ,सामाजिक, शैक्षिक ,साहित्यिक आदि विविध गतिविधियों और इतिहास का विस्तृत लेखा-जोखा अगर किसी को जानना है तो उसे डॉक्टर अजय अनुपम की पुस्तक “भारत के इतिहास में मुरादाबाद का स्थान” अवश्य पढ़ना होगी । यह पुस्तक डी.लिट. के शोध-प्रबंध के उद्देश्य से लिखी गई थी और इसके पुस्तक रूप में प्रकाशन से इतिहास लेखन को एक नई दिशा मिली है । प्रायः इतिहास लेखन उबाऊ होते हैं तथा उनमें दस्तावेजों से लिए गए तथ्य पृष्ठ संख्या बढ़ाने के उद्देश्य से भर दिए जाते हैं । ऐसे कम ही लेखक होते हैं ,जिनके पास अपनी एक विशिष्ट शोध-दृष्टि होती है जिनकी शोध-प्रवृत्ति होती है और जो अपने हृदय की प्रेरणा से शोध कार्य के लिए समर्पित हो जाते हैं । यों तो ठाकुरद्वारा के सनातन धर्म हिंदू इंटर कॉलेज में इतिहास के प्रवक्ता के तौर पर कार्य करने और रिटायर हो जाने के बाद कहानी समाप्त हो जाती लेकिन डॉ. अजय अनुपम के जुझारू शोधपरक व्यवहार ने उन्हें ठाकुरद्वारा का मानो पर्यायवाची ही बना दिया। धुन के पक्के इस लेखक ने ठाकुरद्वारा के इतिहास को अंतरात्मा की पुकार पर जानने का प्रयास किया और इसके लिए 1980 से लेकर 2008 ईस्वी तक न जाने कितने स्वतंत्रता सेनानियों, महापुरुषों तथा जीवन के विविध क्षेत्रों में सक्रिय छोटे और बड़े व्यक्तियों से मिलता-जुलता रहा । उनका साक्षात्कार लेता रहा। इतना ही नहीं 9 अगस्त 1992 को इस धुन के पक्के लेखक ने अपने क्षेत्र के स्वतंत्रता सेनानियों से भेंट करने के लिए एक विस्तृत यात्रा ही कर डाली। साथ में स्वतंत्रता सेनानियों को भी लिया । अध्यापकों तथा शिष्यों का भी सहयोग लिया । इन सब का परिणाम “भारत के इतिहास में मुरादाबाद का स्थान” बन पाया है ।
पुस्तक ठाकुरद्वारा के इतिहास का भ्रमण करते हुए वर्तमान अवस्था का परिचय पाठकों को प्रदान करती है । क्योंकि मुरादाबाद शब्द का प्रयोग पुस्तक में किया गया है ,अतः थोड़ा-सा इस पर दृष्टिपात किया जाए ।
पुस्तक का आरंभ इस बात से होता है कि कठेर शब्द की उत्पत्ति कहाँ से हुई ? यजुर्वेद से संबंधित एक ऋषि कठ हुए हैं उन्हीं के नाम पर यजुर्वेद की एक कठ शाखा बनी है । जहाँ कठ-शाखा के मानने वाले लोग रहते थे ,उसी क्षेत्र को कालांतर में कटहर या कठैर कहा गया । इतिहासकार के अनुसार वास्तविक रूप में रूहेलखंड का नाम भारत के इतिहास में कटिहार के नाम से जाना गया है । (प्रष्ठ 14 )
मुरादाबाद के चार गाँवों पर कठेरिया राजा रामसुख का शासन था । (कई अन्य मान्यताओं में राजा रामसुख के स्थान पर राजा रामसिंह नाम का उल्लेख मिलता है:समीक्षक) ठाकुरद्वारा में भी कठेरिया राज्य था । (प्रष्ठ 19)
1624 में जहाँगीर ने राजा रामसुख के विरुद्ध कार्यवाही आरंभ कर दी थी । रुस्तम खां को नियुक्त किया ,जिसने धोखे से राजा रामसुख की हत्या कर दी (पृष्ठ 27)
मुरादाबाद पहले “चौपला” के नाम से जाना जाता था । चौपला का नाम बदलकर शाहजहाँ के पुत्र मुराद के नाम पर मुरादाबाद के नाम से जाना गया ( प्रष्ठ 27 )
लेखक के अनुसार इन संघर्षों के बीच कठेरियों ने अपने “पुराने नायकों को महिमामंडित करते हुए” नयी रियासतों की स्थापना में उन्हें प्रमुख स्थान दिया । कठेरिया राजा रामसुख के नाम पर रामपुर बसाया गया ,जिसे रोहिल्ला नवाब फैजुल्ला खाँ ने अपनी राजधानी बना लिया । (प्रष्ठ 32 )
इसी दौरान 1719 में कठेरियों ने ठाकुरद्वारा रियासत की स्थापना ठाकुर महेंद्र सिंह के नेतृत्व में की । ठाकुरद्वारा रियासत के अंतिम शासक कुँवर प्रताप सिंह (1820 से 1910 ) थे। यद्यपि उन्हें अंग्रेजों ने शासक मानने से इनकार कर दिया था । अतः राजवंश केवल सौ वर्षों तक ही चल पाया( प्रष्ठ 37 )
प्राचीन मुरादाबाद ,रामपुर तथा ठाकुरद्वारा के विस्तृत विवरण देने के बाद लेखक ने अपने आप को पूरी तरह “ठाकुरद्वारा” पर केंद्रित कर दिया है ।अतः पुस्तक के आठ अध्यायों में अंतिम पाँच अध्याय ठाकुरद्वारा क्षेत्र में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अंग्रेजों से संघर्ष करने वाले महापुरुषों के विवरण से भरे हुए हैं । यह यहाँ के भवनों तथा उत्सवों की जानकारियाँ उपलब्ध कराते हैं । शिक्षा संस्थाओं ,धार्मिक संस्थाओं तथा साहित्य और संस्कृति के विविध पक्षों का दर्शन पुस्तक के प्रष्ठों पर हमें प्राप्त होता है । ठाकुरद्वारा के पुराने वैद्य-हकीम चिकित्सकों का वर्णन मिलता है । इन सब में महत्वपूर्ण बात यह है कि लेखक ने एक-एक व्यक्ति से संपर्क करके इतिहास की खोज की है । यह बहुत श्रम-साध्य तथा समय-साध्य कार्य होता है।
किस प्रकार से असहयोग आंदोलन में स्वदेशी का विचार फैला ,पंडित भोलानाथ वैद्य ने विदेशी मूल का होने के कारण सिगरेट पीना छोड़ दिया ,एक सिपाही किसी बैठक में ही इतना प्रभावित हुआ कि उसने विदेशी कपड़े से बनी होने के कारण अपनी कमीज फाड़ दी ,आदि तथ्य ढूँढ – ढूँढ कर एकत्र किए गए हैं ।(पृष्ठ 90)
1942 के “भारत-छोड़ो आंदोलन” में गिरफ्तार लोगों की सूची तथा ताम्रपत्र पाने वाले व्यक्तियों की सूची बहुत महत्वपूर्ण है। स्वतंत्रता सेनानी श्री ज्योति सिंह से वार्ता करके लेखक ने इस सूची की पुष्टि की थी । ( पृष्ठ 111 ,संदर्भ 248)
उस जमाने में कांग्रेस कमेटी, ठाकुरद्वारा की गतिविधियों का रिकॉर्ड भी लेखक ने प्राप्त किया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय दो आने की मिठाई रामप्रसाद हलवाई से खरीद कर वितरित किए जाने का लेखा-जोखा अपने आप में रोमांचित करने वाला है। लेखक के परिश्रम को प्रणाम ! स्वतंत्रता सेनानियों की गतिविधियों का उल्लेख करते समय लेखक ने सैकड़ों की संख्या में संदर्भ दिए हैं ,जो यह बताते हैं कि प्रामाणिकता के प्रति लेखक की निष्ठा कितनी दृढ़ है ।
पंडित मदन मोहन मालवीय की प्रशंसा में स्वतंत्रता सेनानी निम्न पंक्तियों को गाते थे, ऐसा उल्लेख केवल डॉ अजय अनुपम की शोध-दृष्टि ही खोज कर ला सकती है:-
असीरे मालवा तू है ,फिदाए कौमें मिल्लत है, हमारा रहनुमा तू है ,हमारा पेशवा तू है (प्रष्ठ 119)
ठाकुरद्वारा क्षेत्र में विवाह के दौरान जो मंगल-गीत लेखक को सुनने को मिले, उसको उसने कागज पर उतार लिया और अपने शोध-प्रबंध का मूल्यवान अंग बना दिया । देखिए कुछ बानगी :-
बन्ना मेरा सज रहा री, दुमंजले कोठे पर
बन्ना मेरा सज रहा री तिमंजले कोठे पर
(प्रष्ठ 207 )
मुसलमानों में विवाह के समय मंगल-गीत भी लेखक ने कागज पर लिखकर सदा के लिए सुरक्षित कर लिए हैं । आनंद लीजिए:-
बन्ने तू बाग मत जइयो
बन्ने तू बाग मत जइयो
तुझे मालन पकड़ लेगी
लेगी जेब का पैसा
तुझे अपना बना लेगी ( पृष्ठ 209 )
ठाकुरद्वारा क्षेत्र में लेखक ने कुछ महत्वपूर्ण भवनों की भी जाँच-पड़ताल की है । उनके इतिहास को खँगाला है तथा वर्तमान समय में उनका क्या स्वरूप है, इसका परिचय दिया है । इनमें तुलसीराम का कुआँ अट्ठारह सौ ईसवी के लगभग बना था। मीठा पानी देता था ।अब बंद है।( पृष्ठ 178 )
लेखक के अनुसार 19वीं सदी के अंत का कोई भवन अब नहीं बचा है( पृष्ठ 179 ) तुलसा भवन ,पुराना कालेज भवन या राज भवन का जो चित्र लेखक ने खींचा है वह काफी हद तक इन प्राचीन भवनों को देखने के लाभ की पूर्ति कर देते हैं । (प्रष्ठ 180-81) बड़ी कोठी साहू राम कुमार का भवन ,अग्रवाल सभा-धर्मशाला सबका एक इतिहास है ,जो पुस्तक में संजोया गया है।( प्रष्ठ 182 )
ठाकुरद्वारा क्षेत्र में मनाए जाने वाले व्रत-त्योहार आदि का जो विस्तृत वर्णन लेखक ने किया है उनका उपयोग न केवल इस क्षेत्र की सांस्कृतिक समृद्धि का पता देता रहेगा अपितु अनेक रीति-रिवाजों को समझने के लिए भी यह शोध प्रबंध बहुत उपयोगी रहेगा।
1923 में स्थापित पाठशाला का सनातन धर्म हिंदू इंटर कॉलेज में रूपांतरण जितना महत्वपूर्ण है (पृष्ठ 262)उतना ही महत्वपूर्ण इसके सर्वप्रथम प्रधानाचार्य आचार्य बृहस्पति शास्त्री का व्यक्तित्व-चित्रण भी महत्व रखता है । 24 जनवरी 1981 को किन्ही पंडित रामेश्वर प्रसाद शर्मा से लेखक ने जानकारी प्राप्त करके यह लिखा कि “स्वस्थ, मझोले बदन के सुंदर और किंचित स्थूलकाय शास्त्री धोती-कुर्ता पहनते थे।”
(पृष्ठ 291 ,संदर्भ 146)
कुल मिलाकर डॉ. अजय अनुपम को उनके इस अद्वितीय शोध कार्य के लिए जितनी भी बधाई दी जाए ,वह कम है । वास्तव में जीवन और यौवन का एक बड़ा हिस्सा तपश्चर्या में बिताने के बाद ही ऐसी ज्ञानवर्धक पुस्तकें तैयार हो पाती हैं।

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