भारतमाता ग्राम्यवन्यविहारिणी
सर्वत्र आलोकित स्फीत ज्वाल,
अति दूर क्षितिज पर विटप माल,
खग-विहग सस्मित , कलरव विशाल,
नहीं काल का कोई चिह्न कराल !
शाश्वत सरस प्राणी सब निर्भय,
संसृति चीर यौवन विस्तारिणी ,
वंदन ! भारतमाता ग्राम्यवन्यविहारिणी ।
हिमगिरि की गंगा गहन तम में ,
आहतक्रन्दित विद्ध असीम,
जड़ता हिंसा से घिरी वसुधा ,
संस्कृति विक्षत विघटित आसीन !
नभ से अश्रु गिरते अभी तक ,
युग-युग से घटित विविध विषाद ,
विद्वेष,घृणा मिथ्या जड़ बन्धन ,
अंतस उर में नहीं स्पृहाह्लाद !
हो जाए अन्त: आत्मा का निनाद ,
खण्डित , संकुचित विविध प्रमाद !
आधार अमर-सुविचारोक्ति की,
दु:ख-दारिद्रय-कष्ट निवारिणी ,
वंदन ! भारतमाता ग्राम्यवन्यविहारिणी ।
उद्वत-अदम्य,अप्रतिहत, दुर्निवार ,
विस्तीर्ण सिन्धु बीच शून्य में पुकार,
भू-नभ का संगीत, समुद्भूत निस्सीम,
वह्नि की शिखा से मुक्त ,अनवरूद्ध आर-पार !
शिला सा वक्ष , चट्टान सी भुजाएं ,
सूर्य सा दीपित प्रकटित समुन्नत भाल ;
प्राण का सागर , अगम,उत्ताल , उच्छल ,
डोलते पर्वत , व्याल , कांपते दिक्काल !
कांपते हैं विषधर , कांपते हैं हिंस्र भाव ,
कांपते हैं कामनावह्नि, कांपते हैं दुःख-दाह !
बाहों में मारूत , गरूड़, गजराज बल,
ज्ञेय , पुण्य-विपुल-सन्निधि विस्तारिणी ,
वंदन ! भारतमाता ग्राम्यवन्यविहारिणी ।
✍? आलोक पाण्डेय