भारतमाता ग्राम्यवन्यविहारिणी
त्याग तपोमय मधुमय सींचित जीवन शाश्वत निर्भय ,
दया-दान-सत्कर्म-धर्म , यह ध्रुव सत्य विनिश्चय !
कालकूट का कर आह्वान , अग्निस्फुलिंग जगाकर ,
सींचित वीरता के शौर्य वह्नि , पुरातन उत्कर्ष उठाकर ।
कालक्रम में विघटन का आज जो दुर्धर स्वर गयी है जाग ,
संस्कृति क्षत-विक्षत विकर्षित , न सभ्यता ना लाज !
धीर! शौर्य सनातन दिव्य पुरातन ,
ला , अप्रतिहत भयानक तांडव नर्तन !
नभोमण्डल से भूतल तक, दुर्निवार दावाग्नि जला दे ,
कटुता-विक्षोभ कर भष्मीभूत , संतप्त-खण्डित अवनि खिला दे !
सर्वत्र व्याप्त भू-कणिका प्रकाश ,
करने विनष्ट धरा पर जड़ता विनाश !
प्रलय घन घेरे विराट-विकराल ,
भयाक्रांत कालविस्तारिणी ,
वंदन भारतमाता ग्राम्यवन्यविहारिणी।
✍? आलोक पाण्डेय
अश्विन , कृष्ण सप्तमी