भायली
चल री भायली !
आज पनघट पर संग-संग,
तड़प रहा मन मेरा
चटक रहा अंग-अंग…
गगरी है खाली
मन है भरा-भरा,
आ सखी ! कह लें कुछ मन की
कर लें मन हरा-हरा…
अनकहा छोड़ा अब तक हमने
जब बहुत कुछ था कहने को,
अनदेखा किया अब तक हमने
जब बहुत था नैनन में भरने को…
नहीं चाहा कभी पूछना, न चाहा कभी बताना
तुम भी चुप थी, मैं भी खामोश,
अधर कंपकंपाये, कदम भी डगमगाए
बस इशारों से ही समझ लिया मन का रोष…
आ सखी ! आज भर लें
मन की रिक्त गागर को,
आज तोड़ दें उन हिचकियों को
रोक लें नैनों में उमड़ते सागर को…
हम रोज़ साथ पनघट पर जातीं
खाली गगरी में एक-दूजे के आँसू भर लातीं,
चुप्पी का बांध न टूटा कभी
कर लेते सब्र देख गगरी भरी…
आज सोलह श्रृंगार कर, मुख पर मुस्कान भर
निकलीं हैं हम अनंत यात्रा पर,
मन को दृढ़ कर, आवेग की गगरी खाली कर
डूब चलीं हैं आज कूप में, सुख की चिर निद्रा कर…
न तुमने मुझे जाना, न मैंने कभी पूछा
न जाने कैसे इस रिश्ते को समझा,
पढ़ ली खामोशी, क्या कहना है चाहती
आख़िर तो हम पनघट की भायली।
रचयिता–
डॉ नीरजा मेहता ‘कमलिनी’