भागवत रहस्य
शुद्ध व्यवहार ही भक्ति है। जिसके व्यव्हार में दंभ है,अभिमान है,उसका व्यव्हार अशुध्ध है।
ईश्वर की सर्वव्यापकता के अनुभव के बिना व्यवहार-शुध्धि नहीं हो सकती।
व्यवसाय -कारोबार कोई अपराध नहीं है।
सेना भगत नाइ का धंधा करते थे। एक दिन उन्होंने सोचा कि मै लोगो के सिर से तो मैल का बोझ उतारता हूँ किन्तु अपने मस्तक का मैल -अपनी ही बुध्धि की मलिनता मै अभी तक दूर नहीं कर सका।
और ऐसे ही उन्हों ने ज्ञान पाया। ऐसे कई महापुरुषों ने अपने व्यवसाय में से ही ज्ञान पाया है।
महाभारत में ऐसे कई दृष्टांत है कि जिनमे यह बताया गया है कि
महाज्ञानी ब्राह्मण भी वैश्य के घर सत्संग के हेतु से जाते थे।
जांजलि ऋषि को अपने ज्ञान पर जब अभिमान हुआ,तो उन्होंने आकाशवाणी सुनी कि
‘तुम तुलाधार वैश्य से जाकर मिलो।’
ऋषि वहाँ गए। बातो ही बातों से उन्हें ज्ञात हुआ कि वे भी ज्ञानी है।
तो उन्होंने तुलाधार से पूछा कि उन्होंने ऐसा ज्ञान कहाँ से पाया?
तुलाधार ने कहा -वैसे तो मेरे माता-पिता ब्राह्मण है,फिर भी बहुत कुछ ज्ञान मुझे अपने व्यवसाय से ही मिला है। मेरा व्यवसाय ही मेरा गुरु है। तुला की डंडी की भाँति मैने अपने मन-बुध्धि को सरल और समान बना लिया है। वैश्य लाभ न कमाए तो अपने परिवार का परिपालन कैसे करेगा?
नफा कमाना वैसे तो अपराध नहीं है किन्तु अयोग्य नफा लेना गुनाह है।
नृसिंह भगवान आकाशसे नहीं,स्तम्भ (जड़) में से प्रकट हुए थे।
मात्र चेतन में ही नहीं,जड़ में भी ईश्वर के दर्शन करो। ईश्वर जड़ और चेतन दोनों में है।
लौकिक दृष्टि से पृथ्वी जड़ है किन्तु इसमें में ईश्वर की भावना रखनी चाहिए।
एक महात्मा के दो शिष्य थे। वे दोनों पढ़े लिखे और कथाकार थे।
जब महात्मा की मृत्यु निकट आई तो उनकी गद्दी के लिए दोनों में झगड़ा शुरू हो गया।
महात्मा भी सोचने लगे कि किसे वारिस बनाया जाये?
आखिर उन्होंने दो फल मंगवाकर दोनों को एक-एक देते हुए कहा कि इस फल को ऐसे स्थान पर जाकर खाना,
जहाँ तुम्हे देखने वाला कोई भी न हो। वे दोनों फल लेकर चले गए।
एक शिष्य ने सोचा कि मै कमरा बंद करके खा लूँ,क्योकि वहाँ मुझे कौन देखने वाला है ?
और उसने कमरा बंद करके फल खा लिया।
दूसरा शिष्य पूरा दिन इधर-उधर घूमता-फिरता रहा किन्तु उसे एक भी स्थान ऐसा नहीं मिला जहॉ कोई न हो।
वह जहाँ भी गया वहाँ उसे परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव हुआ। इस दूसरे शिष्य ने ज्ञान को पचाया था।
वह फल खाए बिना वापस आया। गुरूजी ने दूसरे शिष्य को अपना वारिस बनाया।
पहला शिष्य कथा करता था पर ईश्वर के व्यापक स्वरुप को समझ नहीं पाया था ।
भागवत रहस्य-201
प्रह्लाद ऐसे निष्ठावान थे कि वे सभी में ईश्वर निहारते थे।
अनेक में एक (प्रभु) का दर्शन करना भक्ति है। जो सभी में उसी तत्व को देखे,वही ज्ञानी है।
ज्ञानी एक में अनेक का लय करता है। तुम भी उसी तरह एक में अनेक का लय करो।
यह वेदांत की प्रक्रिया है। “अनेक में एक को देखो।” (अद्वैत या ज्ञान मार्ग))
जब कि -वैष्णव (भक्त) एक में अनेक को देखते है। (द्वैत या भक्ति मार्ग)
शाब्दिक भिन्नता हो सकती है किन्तु ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग में खास कोई भिन्नता नहीं है।
अनेक में एक को देखना ज्ञान है। एक में अनेक को देखना भक्ति है।
ज्ञानी बाह्य रूप रंग की सुंदरता के कारणभूत ईश्वर का ही चिंतन करते है। गाय काली हो या सफ़ेद पर दूध तो सफ़ेद ही देती है। मनुष्य बुद्धिमान हो या मूर्ख पर सभी में रहा चेतनतत्व एक ही है। जगत में कोई मूर्ख नहीं है। सब ईश्वर के अंश है। जो दुसरो को मूर्ख माने वह खुद ही मूर्ख है।
हमारे देश में पशु की पूजा की जाती है। भैरवनाथ का वाहन कुत्ता है और शीतला माता का वाहन है गधा।
ईश्वर चैतन्य रूप से सभी में है –
ऐसा अनुभव करने की जिसे आदत पड़े -उसकी प्रत्येक क्रिया भक्तिमय और ज्ञानमय बनेगी।
बुद्धि का कभी मत विश्वास मत करो। किसी संत को गुरु बनाकर उसके आधीन रहो।
जो तुम्हे पाप करने से रोके ऐसे किसी संत के आधीन रहो। सद्गुरु के बिना कल्याण नहीं हो सकता।
यदि वे संत कृपा करेंगे तो तुम्हारी मानसी वासना और विकारों का नाश होगा।
मन-बुध्धि की वासना संत सेवा के बिना दूर नहीं हो सकती। बुध्धि को किसी संत की सेवा में लगा दो।
जब तक बुध्धि परमात्मा से विवाहित न हो जाये,तब तक उसे संत के आधीन रखो।
सद्गुरु की कृपा के बिना हर किसी में ईश्वर के दर्शन नहीं हो सकेंगे।
गुरु बनने से शिष्य के पापों का उत्तरदायित्व गुरु के नाम पर आ जाता है।
शिष्य के पापों का न्याय करने के समय गुरु को भी वह बुलाया जाता है और उनसे पूछा जाता है कि
उन्होंने शिष्यों को पाप करने से क्यों नहीं रोका ,उसे सन्मार्ग पर क्यों नहीं ले जाया गया।
तब शिष्य के साथ-साथ गुरु को भी दंडित होना पड़ता है।
एक बार महाराष्ट्र में सभी सन्त इक्कठ्ठे हुए।
भक्त मंडल की ज्ञान और भक्ति की परीक्षा करने के लिए मुक्ताबाई ने गोरा कुम्हार से कहा।
वहां नामदेव भी थे,नामदेव को अभिमान था कि वह भगवान को प्यारे है और वे उनसे बाते करते है।
गोरा कुम्हार सभी के सर पर एक-एक चपत लगाकर परीक्षा करने लगे।
उसने नामदेव के सिर पर भी लगाई। ऊपर से तो नामदेव ने कुछ भी नहीं कहा किन्तु उनका मुंह फूल गया।
उन्होंने अभिमानवश सोचा कि कही मिटटी के बर्तन की भाँति मेरी परीक्षा हो सकती है?
अन्य भक्तो के चेहरे के भाव अपरिवर्तनरहित ही रहे।
गोरा कुम्हार ने अपना निर्णय सुनाया-सभी के मस्तक पक्के है,किन्तु नामदेव का कच्चा है।
यह सुनके नामदेव ने गुस्से से कहा -तुम्हारा सिर ही कच्चा है। तुम्हे ही शिक्षा की आवश्यकता है।
नामदेव ने विठ्ठलनाथजी के पास जाकर सारी घटना सुनाई।
विठ्ठलनाथजी ने कहा- नामदेव,यदि मुक्ताबाई और गोरा कुम्हार कहते है कि तेरा सिर कच्चा है, तो अवश्य ही कच्चा होगा।तुझे अभी सर्वव्यापक ब्रह्म का अनुभव ही नहीं हुआ है। इसका कारण यह है कि तूने अब तक किसी सद्गुरु का आश्रय नहीं लिया है। तू मंगलवेढा में रहने वाले मेरे भक्त विसोबा खेचर के पास जा,वह तुझे ज्ञान देगा।