“भागते चोर की लंगोटी”
ईमानदारी की ओढ़नी धीरे धीरे उतरने लगी है,
चोरी की एक एक कर परतें उधड़ने लगी हैं।
अब चोर को सवाल पूछने की हिमाकत अखरने लगी है,
ईमानदारी के मुखौटे के नीचे की हकीकत उबरने लगी है ।
उसकी एक एक करतूत को उजागर कर दिया है,
वक्त ने धीरे धीरे चोर को नंगा कर दिया है।
अब तो चोर भागने को है, लगने लगा है,
क्योंकि मतदाता चोरी को समझने लगा है।
कहते हैं भागते चोर की लंगोटी ही सही,
पर चोर तो नंगा हो गया, अब लंगोटी कहाँ रही ।
लंगोटी छोड़ो, चोर को दबोचो भागने ना पाए,
मौका चूकने वाले जग में सदा ही हैं पछताए।