भले ही टूट जायें, जाम सपनों के बनाती हूँ
भले ही टूट जायें, जाम सपनों के बनाती हूँ
ग़मों के घूँट पीकर भी नहीं मैं लड़खड़ाती हूँ
गुज़ारी है इसी अंदाज़ में ये ज़िन्दगी मैंने
हो जितना दर्द इस दिल में मैं उतना मुस्कुराती हूँ
अँधेरे रास्ते हैं और डूबे भी सितारे हैं
मैं’ जुगनू की तरह से ही स्वयं में टिमटिमाती हूँ
मेरी खामोशियाँ भी शोर करती हैं बहुत मुझ में
दलीलें अपनी दे देकर ,उन्हें हरदम मनाती हूँ
ये माना मंज़िलें पाना नहीं आसान होता है
मैं गिरकर फिर से उठती हूँ, न पग पीछे हटाती हूँ
पता है ‘अर्चना’ बुझ जाते ये हल्की हवाओं से
चिरागों को तभी मैं ध्यान से अपने जलाती हूँ
04-12-2020
डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद