भरोसा
भरोसा यह शब्द आजकल बदल गई है ,
इस बहुरंगी समाज में खो गई है ।
किसको अपना माने और किसको नहीं ,
कौन है गलत और कौन है सही ।
आंख मूंदकर जिसको हम अपना मानते हैं ,
वह शायद हमारी कमजोरी को जानते हैं ।
छलते हैं हमारी भावनाओं से,
ठेस पहुंचाती है हमारे मन में ।
हम अक्सर ऐसे लोगों को पहचान नहीं पाते हैं,
और उनको खास दर्जा दे डालते हैं।
इसमें दोष हमारा तो नहीं रहता ,
दोषी है वर्तमान समाज जो व्यक्तियों को बना रहा है ऐसा।
क्यों स्वार्थ को छोड़कर कोई किसी से नहीं बात करता,
क्यों किसी के भरोसे पर वह खरा नहीं उतरता ।
इस बहुरंगी समाज में है कई चेहरे,
कुछ असली और कुछ कृत्रिमता से बने ।
उन्हें पहचानना बड़ा ही मुश्किल काम है,
बगल में छुरी और मुंह में राम है।
हीरा भी कोयले की खान से मिलते हैं ।
उसी तरह भले मानस भी कुछ-कुछ रहते हैं ।
सभी को दोष देना ना मेरा उद्देश्य है ,
और ना ही किसी को बुरा कहना मेरा आशय है।
लेकिन अक्सर ऐसी घटनाएं हो रही है ,
जिसमें इंसान की प्रवृति गिरगिट जैसी हो गई है।
यह लोग रंग इतना बदल रहे हैं ,
कि गिरगिट भी आश्चर्य में पड़ गए हैं ।
भरोसा किसे कहेंगे ? यह कहना आसान नहीं,
मनुष्य का ह्रदय कोमल है कोई पाषाण नहीं ।
इसीलिए बहुत जल्द सबको विश्वास कर लेते हैं,
और उनकी सरलता को समाज बेवकूफी का नाम देते हैं।
उत्तीर्णा धर