भय -भाग-1
भय- भाग-1
भय अन्तर्मन कि गहराई से उतपन्न वह विचार है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व को झकझोर देता है और विचारों को अशांत उद्वेलित करता है विचारो कि उतपत्ति मनुष्य कि कल्पनाशीलता कि योग्यता है जो उसे अपने परिवेश परिस्थितियों के कारण उसे विवश करती है जाग्रत करती है एव उसके विचारों के सृजन के लिए प्रेरित करती है ।
विचारो के सृजन का धरातल मूल रूप से मस्तिष्क है जिसे संवेदनाओं का संचार हृदय द्वारा प्राप्त होता है हृदय का नियंत्रण व्यक्ति कि मूल प्रबृत्ति के चरित्र द्वारा किया जाता है ।
व्यक्ति के मूल चरित्र का निर्माण अन्तर मन चेतना द्वारा किया जाता है जिसे सांस्कार कहते है ।
कोई व्यक्ति रक्त देखकर द्रवित हो जाता है और वह अंतर्मन से कांप जाता है तो किसी के लिए रक्त देखना उसके जीवन की नित्य संस्कृति होती है जो उसे भयाक्रांत नही करती लेकिन भय कोमल एव क्रूर कठोर सभी के अंतर्मन कि गहराई से उठने वाली संवेदना है जो उसे विवश एव लाचार बना देती है ऐसे में जब वह अपने सयम संतुलन को नियंत्रित रखता है तो भयानक भयंकर भयाक्रांत करने वाली विषम परिस्थितियों से निकल जाता है ।
मानव मन मस्तिष्क पर जिन कारक कारणों से भय का नाद होता है उसमें सबसे बड़ा कारण उसके स्वंय के अस्तित्व पर प्रश्न अर्थात जीवन एव उससे सम्बंधित कारक कारण जैसे जीवन के समापन ,जीवन मे अर्जित सम्पत्ति मान सम्मान प्रतिष्ठा आदि दूसरा कारण किसी अपने के खो जाने बिछड़ जाने के संदेह या सत्य ऐसे घटक कारक है जो कोमल कठोर दोनों को में ऐसी संवेदना का संचार करते है जो उसके मन मस्तिष्क से होते हुए उसके अंतर्मन को प्रभावित करते है।
उदाहरण-1
सीमा पर खड़ा प्रहरी सिपाही सैनिक को पता होता है कि वह पल प्रहर जीवन के कुरुक्षेत्र में खड़ा है जिसमे कभी भी उसकी चैतन्य सत्ता के जीवन पर किसी तरफ से प्रहार कि घातक मार से आहत हों जीवन त्याग करना पड़ सकता है वह मन मस्तिष्क एव सत्यता को स्वीकार कर चुका होता है और सहर्ष अपने दायित्वों का निर्वहन जीवन मृत्यु से बेपरवाह करता है ।
जबकि किसी सामान्य व्यक्ति को सिर्फ यह तथ्य पता लग जाय की वह ऐसी स्थिति में है कि उसका जीवन जोखिम में है जैस कोई गम्भीर बीमारी का शिकार हो जाए और उसे यह ज्ञात हो जाए दूसरा किसी को दंड के रूप में मृत्यदंड का दंड मील जाय दोनों ही स्थितियों में मानव मन मतिष्क प्रभावित होता है जिसका प्रभाव उसके अंतर्मन पर पड़ता है और उसका संयम धैर्य जबाब देने लगता है और निराशा का संचार हो जाता है जिसके परिणाम स्वरुप उसके
उदासीनता चरम पर होती है जिसके कारण नकारात्मता उसे अपने पास में जकड़ लेती है और वह जीवन की प्रत्याशा त्याग देता है ऐसी स्थिति में यदि वह ऐसी गंभीर बीमारी से ग्रसित है जिसमे जीवन की प्रत्याशा तो रहती है लेकिन नगण्य जो चिकित्सा के उचित व्यवहार पर निर्भर रहती है जिस मरीज द्वारा जीवन की प्रत्याशा को त्याग दिया जाता है तब चिकित्सको का सकारात्मत प्रयास भी व्यर्थ हो जाता है क्योकि उसको दी जाने वाली औषधिया प्रभवी नही हो पाती उसकी अपनी निराशा के कारण भय ही होता है यह उदाहरण समाज मे नित्य दृष्टगोचर हो जाता है ।
भारत कि स्वतंत्रता के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना का अक्सर वर्णन बड़े गर्व से किया जाता है सरदार भगत सिंह जी को ब्रिटिश हुकूमत द्वरा फांसी की सजा सुनाई गई और फांसी की सजा कि तिथि निर्धारित हुई फांसी की सजा सुनाई गई तिथि एव फांसी की तिथि के बीच सरदार भगत सिंह जी का वजन बढ़ गया जबकि भगत सिंह जी को मालूम था कि वह चंद दिनों ही दुनियां में जीवित रहने वाले है उन्होंने अपना जीवन मातृभूमि के लिए किए गए बलिदान के रूप में अपने मृत्यु को उत्सव के रूप में स्वीकार किया उन्हें मृत्यु का भय नही बल्कि अपने ऊपयोगी अल्पकालिक जीवन पर गर्व था जिसके कारण उनकी अंतर्चेतना आल्लादित थी जिससे वह निर्भय हो स्वीकार किया यही कारण था उनका शारीरिक भार बढ़ गया।
भय भाव है संवेदना है जिसका जागरण चेतनता कि जोखिम कि अनुभूति है जिसके कारण मस्तिष्क पर प्रथम प्रभाव पड़ता है जो मन को उद्वेलित करता है जिसके कारण हृदय जो धड़कन का स्रोत है उसे प्रभवित करता है जिसके मन मस्तिष्क और हृदय एक साथ सक्रिय हो उठते है जिसका सीधा सम्बंध अन्तरात्मा से होता है आतंरात्मा का सम्बंध संस्कार कि संस्कृति से होता है।
एक कहावत है की बनिये के बच्चे को जुए जैसे खेल को सिखाया जाता क्योकि बनिये के बच्चे को व्यवसाय करना होता है और व्यवसाय में लाभ हानि लाभ हानि मूल सिद्धांत है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार जुए में हार जीत बनिया का बच्चा जुए के खेल में जीत हार से परिचित तो भविष्य में व्यवसायिक हानि में वह असंतुलित व्यग्र उग्र नही होगा और व्यवसाय संचालन कि व्यवहारिक सुचारुता में कोई अंतर नही पड़ेगा वह व्यवसायिक हानि को व्यवसायिक प्रक्रिया का अंग स्वीकार कर निश्चित भाव से अपना व्यपार करता रहेगा ठिक उसी प्रकार जैसे सीमा पर मुस्तैद सिपाही यदि दुश्मन के प्रहार से मरणासन्न हो जाता है पुनः स्वस्थ होकर अपने कार्य को जिम्मेदारी पूर्वक निर्वहन करता है बनिया और सीमा के सिपाही दोनों को अपने अपने जोखिमों कि संस्कृत से संस्कारित किया जाता है जिससे कि निर्भय होकर किसी भी परिस्थिति में अपने कार्यो को करते रहते है।
भय वास्तव मे मन बुद्धि एव शारीरिक क्रिया प्रतिक्रिया कि सक्रियता ही है किसी घटना सूचना परिस्थिति को देखा सुना जाता है जब किसी भयानक भयाक्रांत कर देने वाली घटाना को व्यक्ति देखता है तो उसके नेत्रों द्वरा दृश्य कि आभा अक्स दिमाग पर बनता है जो हृदय को प्रभावित करता है जिसका प्रभाव सम्पूर्ण शरीर एव शारीरिक चेतना पर पड़ता है दृष्टि सीधे तौर दिमाग को संक्रमित करती है भयाक्रांत कर देने वाले दृश्य से यहाँ स्प्ष्ट करना आवश्यक है कि दिमाग और बुद्धि में मौलिक अंतर है दिमाग शारीरिक व्यवस्था के चैतन्य सत्ता का नियंत्रण केंद्र है जिसमे दो महत्वपूर्ण भाग होते है मेडुला आबलंगेटा बुद्धि दिमाग के शुक्ष्म से सूक्ष्मतम अंतर शक्तियों का केंद्र है जैसे हृदय शरीर कि चेतना संचार का केंद्र है लेकिन आत्मा अंतर्मन कि गहराई में निहित वह शुक्ष्तम अंश है जो प्राणि के प्राण का आधार है उसी प्रकार बुद्धि मन का वह शुक्ष्तम अंश है जो मानव के मन को नियंत्रित अनियंत्रित करता है भय का सम्बंध दिमाग मन एव बुद्धि आत्मा से ही है मन और बुद्धि भय को देख सुन समझ कर स्वीकार कर उसे बुद्धि एव आत्मा तक संचारित करते है।
एक और उदाहरण यहां आवश्यक है मान लीजिए कि आप बहुत आनन्द मय वातावरण में आल्लादित है आनंदित है खुशी में नाच रहे है झूम रहे है निश्चिन्त निर्भीक तभी एका एक आपको कोई अप्रिय सूचना प्राप्त होती है जिसे आपका कान सुनता है और तुरंत दिमाग के माध्यम से मन को मन एव दिमाग उसे बुद्धि एव आतंरात्मा को प्रेषित करते है एक एक आपके खिलखिलाते चेहरे से मुस्कान गायब हो जाती है और आल्लादित वातावरण में भी आप अकेले नितांत अकेले आपके नेत्रों से अश्रुधारा फुट पड़ती है यह एका एक परिवर्तन शारिरिक मानसिक बौद्धिक एव आत्मिक चौतरफा होता है विज्ञान इसे हार्मोन्स का त्वरित परिवर्तन मानता है जिसके कारण अट्टहास करता व्यक्ति विलाप करने लगता है कारण कारक भय का संचार ही होता है ।
तीसरा उदाहरण और भी प्रासंगिक एव रोचक है मान लीजिए आप कही जा रहे है अपनी हस्ती मस्ती में कोई चिंता नही कोई भय कि आशंका नही तभी अचानक आपके सामने ऐसी कोई स्थिति परिस्थिति पैदा हो जाए जैसे आपके सामने कोई विषधर दिख जाए या आपको कोई मारने के लिए दौड़ाने लगे या कोई लुटेरा आपको लूटने के लिए चुनौती दे इन सभी एकाएक उतपन्न स्थिति परिस्थितियों को दृष्टि दिमाग मन हृदय को संचालित करती है और हृदय दिमाग अंतर्मन एव बुद्धि को और शरीर मे एक नई चेतना का जागरण होता है जो सामने खड़े भय से बचने के लिए प्रेरित करता है चुनौती देता है और आप बचने के सभी प्रयास करते है
भय आवश्यक भी है सांस्कारिक समाज के लिए सभ्य मनाव के लिए नही तो निडरता से निरंकुशता का साम्राज्य बढ़ता है निरंकुशता से असभ्य आपराधिक अन्याय अत्याचार पनपता है अब तक या वर्तमान में जितने भी राज्य विधान है संविधान है या स्मृतियां थी या है उनका एक ही उद्देश्य है कि निरंकुशता को पनपने न दिया जाय और सभ्य एव राष्ट्र राज्य को समर्पित समाज का निर्माण हो वास्तव मे राज्यो के विधान संविधान का उद्देश्य आस्था से शुभारम्भ का है लेकिन उसकी रीढ़ दण्ड का भय है जो निरंकुशता को नियंत्रित करने में समर्थ होती है।
भय उचित भी होता है –
भय संस्कार कि जननी भी होता है अंतर मात्र इतना ही होता है कि जो आस्था कि धरातल से जन्म लेता है वह व्यक्ति को शसक्त सकारात्मक एव साहसी बनाता है ।आस्था जन्म के साथ जन्मार्जित परिवेश के साथ ही बचपन, युवा, प्रौढ़ एव बृद्धावस्था तक रहता है ।
उदाहरण के लिए बच्चे का जन्म जिस राष्ट्र धर्म जाती में होता है वह उनके प्रति जीवन भर आस्थावान होता है इस प्रकार कि आस्था से अंतर्मन में सात्विक भय ही होता है ।
बचपन मे अनैतिक आचरण के लिए माता पिता से डरना भय का एक ऐसा स्वरूप है जो बचपन को मर्यादित सांस्कारिक एव शसक्त बनाता है क्योकि कोई भी माता पिता अपनी संतान को अनैतिक रास्ते पर जाने से रोकते है जिसका भय बचपन मे रहना आवश्यक है यह भय का उचित स्वरूप है।माता पिता गुरु संरक्षक का भय उचित मार्ग पर चलने के लिए बचपन को परिष्कृत करता है ।
माता पिता गुरु द्वारा बताए गए आचरण के प्रति भय का होना स्वाभाविक है जो राष्ट्र समाज के प्रति जिम्मेदार नागरिक निर्माण के लिए अतिउपयोगी एव आवश्यक है जब कोई भी बचपन इस प्रकार के भय से निडर निर्भीक हो जाता है तो वह भविष्य में समाज राष्ट्र में अनैतिकता अन्याय अत्याचार भ्रष्टाचार के जनक के स्रोत के रूप में ही कुख्यात विख्यात होता है।
धर्म के प्रति आस्था राष्ट्र समाज के प्रति आस्था भय नही बल्कि आचरण के निर्माण का अस्तित्व आधार की आस्था है।
भय कि उत्तपत्ति अनैतिकता अत्याचार या आकास्मिक कारणों से आस्था नही संवेदना वेदना का ही संचार है भय को इसी परिपेक्ष्य में सम्पूर्णता से परिभाषित होना चाहिए इस प्रकार के भय निश्चित रूप से नकारात्मक बोध कि चुनौती एव व्यक्तित्व का दुर्बल पक्ष होता है जब आचरण कि आस्था संस्कृति का समापन होता है तब भय का संचार घातक होता है।
आस्था के अस्तित्व के भय के समापन के बाद ही आक्रांता उग्रता के भय का जन्म होता है जो राष्ट्र समाज के लिए घातक होता है।
नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश।।