भय का भूत
नींद खुली जब रात को
मैंने छत पर देखा
दूर खुली खिड़की से
कोई काली छाया
घूर-घूर कर शायद-
मुझको देख रही थी।
अंगारों सी दहक रही थीं
आँखें उसकी
और फड़कते
पंखों की कर्कश ध्वनि से
मेरे कमरे का सन्नाटा
टूट रहा था।
मैंने सोचा
शायद कोई उल्लूक होगा!
होगा कोई उल्लूक शायद
वृक्ष के पीछे?
ध्यान से देखा मैंने तो
एक छत के नीचे
खोया-खोया जर्जर बूढ़ा
चाँद बेचारा
अस्त समय की
अपनी कुछ अंतिम साँसें
कुछ तारों की झुरमुट में
जाते-जाते
गिन रहा था।
मैं चादर की ओट में सहमा
जाने-अन्जाने ही क्या-क्या
लेटे लेटे सोच रहा था।
सोच रहा था
तभी किसी की
चीख़ नें
मेरे ध्यान को खींचा
मेरी छत के पीछे वाली कोठी से ही
”मुँह नोचवा-मुँह नोचवा”
कोई चीख़ रहा था।।
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सरफ़राज़ अहमद “आसी”