भटके हुओं को राह पे लाने लगा हूँ अब
भटके हुओं को राह पे लाने लगा हूँ अब
पत्थर भी रास्तों के हटाने लगा हूँ अब
अपने सफ़र का हाल सुनाने लगा हूँ अब
दुश्मन मिले कि दोस्त निभाने लगा हूँ अब
जब से सफ़र में साथ तेरा मिल गया मुझे
आँखों में तेरे ख़्वाब सजाने लगा हूँ अब
आती है याद उसकी अकेले में इस क़दर
तन्हाइयों में अश्क़ बहाने लगा हूँ अब
चेहरे पे जिसने अपने मुखौटा लगा लिया
चेहरे से ये नक़ाब हटाने लगा हूँ अब
आदत रही है जिनकी सदा झूठ बोलना
ऐसों को आइना भी दिखाने लगा हूँ अब
लोगों का दर्द बांट के आधा तो कर सकूँ
इस वास्ते मैं सबको हंसाने लगा हूँ अब
गुलशन में प्यार-प्यार ही बाक़ी बचा रहे
नफ़रत सभी दिलों से मिटाने लगा हूँ अब
लड़ने में वक़्त खामखां ज़ाया भी क्यूँ करूँ
‘आनन्द’ रूठता है मनाने लगा हूँ अब
– डॉ आनन्द किशोर