*भटका राही*
डॉ अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक अरुण अतृप्त
भटका राही
आस लिए निकला था घर से
राह गया हुँ भूल
पेट पीठ से चिपक रहा है
तेज लग रही धूप
रोजी रोटी ने मुझको तो
दर दर है भट्काया
काम मिला न कोई अभी तक
प्रभु ये कैसी माया
देख देख संसार की रौनक
आँख मेरी चुन्धियाई
फूटी दमडी पास नही है
तिस पर ये महंगाई
डोलत डोलत साँझ हुइ अब
किस दर जाऊँ रे
कौन सुनेगा अरज बाबरे
पानी पी सो जाऊँ
आस लिए निकला था घर से
राह गया हुँ भूल
पेट पीठ से चिपक रहा है
तेज लग रही धूप
उससे मागुं इससे मागुं
भीख नहीं जो सबसे मांगु
काम मिलेगा कोई भैय्या
इतनी सी हैं अरज रे भैय्या
आस लिए निकला था घर से
राह गया हुँ भूल
पेट पीठ से चिपक रहा है
तेज लग रही धूप
मरते मरते मर जाना है
हम मजदूरों का तो रोज कमाना है
सुबह हुइ तो काम पे निक्ले
साँझ ढले फिर घर आना है
घर भी कैसा घर भी किसका
घास फूस बस यही ठिकाना हैं
आस लिए निकला था घर से
राह गया हुँ भूल
पेट पीठ से चिपक रहा है
तेज लग रही धूप