बड़प्पन
बड़प्पन
(1)
आओ देखें आज बड़प्पन।
निर्णय करते? सौतेलापन।
बेटे हो!कह-कह के उसपर।
बोझ डालता रहा मान्यवर।
मालिक,से बन पिता न पाया।
बेटे का मन अति झल्लाया।
मालिक और मजदूर का रिश्ता।
उसे न मालूम इतना सस्ता।
बेटे के बेटा जब जन्मा।
मालिक बोला,सुन रे वरमा।
भोज-भात में कमी न करना।
जो चाहे मुफ्त ले,जा करना।
गिरवी को कुछ हो यदि न तो।
बेटा!बेटे को हलवाही में रख दो।
(2)
बूढ़ी थी माँ,जाना ही था,विधि का करार।
सो चली गईं।अब’सुसंस्कृत’का संस्कार।
मालिक!दाह हेतु लकड़ी अब ले लूँ ?
सूख गया वह आम का बूढ़ा पौधा,
जिसे था रोपा,पानी दे,दे पाला,पोसा।
कौंध गया उसकी आँखों में भूत की घड़ियाँ।
“नहीं रे, उसका पलँग बनेगा, मेज,“कुर्सियाँ।“
किन्तु,मैंने रोपा,तीक्ष्ण ताप में दूर ताल से
पानी ला,ला जिन्दा रक्खा मैंने देखभाल से।
“नहीं कहा तो,नहीं।समझते हो नहीं क्या रे!!
लेना है तो बाग से गिरकर सूखे पत्ते, ले लो।
याद रखोगे मेरा बड़प्पन जितना चाहो जाओ ले लो।“
परिभाषा की चकाचौंध में ऐसे एक परिभाषा जुड़ गयी।
हृदय पटल पर कवि के किन्तु,एक और निराशा जुड़ गयी।
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