बोलौ गोरी रहिहौं कित में
बोलौ गोरी रहिहौं कित में,
कै काहू के आईं पाहुने,
देखी नहीं कबहू इत में।
मैं सब बीथिन में आवत जावत,
घूमूँ वनखड़ में गऊ चरावत।
सिगरौ वृज मेरौ देखौ भालौ,
तुम दिखीं नहीं कबहू उत में।
कै तुम आईं नंद बवा के,
सर्वाधिक गउएँ खरिक में जाके।
कै तुम भूलि गयी हौ पथ,
चैन नहीं चित में।
बोलौ मैं का कर्म करूं,
तुम्हें कहाँ बिठाऊँ कहाँ धरूं।
छोड़ शर्म कहौ करिबे कूँ,
जो हो कर्म तुम्हारे हित में।
जयन्ती प्रसाद शर्मा