“बोलती आँखें”
बोलती आँखें
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सदा कुछ, तो ‘बोलती ऑंखें’;
कई राज को , खोलती ऑंखें;
ऑंखों से ही, खुशियां झलके;
गम में भी , ऑंखें ही छलके।
अपने भूले , रिश्तों को अगर;
ऑंखों पे , अपनापन दिखता;
दुश्मन से , दोस्ती में भी सदा;
ऑंखों में,सूनापन ही दिखता।
जब हम राहों से ,भटक जाते;
सत्य बोलने में , अटक जाते;
दिल कुछ कहे,व दिमाग कुछ;
तभी भी सत्य, बोलती ऑंखें।
जब ऑंखों में , इश्क बसी हो;
जिन्दगी , कहीं और फसी हो;
सबसे छुप- छुप के , मन डोले;
तब फिर, ऑंखें ही सदा बोले।
नयन से जो कभी भी,नैन लड़े;
ऑंखें चार,प्यारे शब्द बोल पड़े;
नयन की बात,जो हुई अनसुनी;
जो नयनों ने,काला चश्मा चुनी।
कभी बंद ऑंखें भी , बोलती है;
जब नींद में भी , वह डोलती है;
न जानो यह , अंदर की बात है;
सपने में , जैसा निज हालात है।
बच्चे भी, ऑंखों की भाषा जाने;
ऑंखों से ही वे,सब कहना माने;
माहौल हो जब , न हों मुख बातें;
तब फिर वहां पर,बोलती ऑंखें।
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स्वरचित सह मौलिक;
….. ✍️पंकज ‘कर्ण’
.. …कटिहार(बिहार)।