बैठा हूं अब भी आंखों को मीचे
नदी के किनारे
उस पर्वत के पीछे
बैठा हूं अब भी
आंखों को मींचे
आ जाओ अब भी
मंदिर के पीछे
पुरानी जगह पर
बरगद के नीचे
जहां पर खिली थी
मुहब्बत की कलियां
पौधों के झुरमुट में
मन की तितलिया
सुहाने वो पल थे
दीवानी सी घड़ियां
तुम्हें भी तो भाती थी
चाहत की लड़ियां
पहाड़ों के नीचे
वो फूलों की बगिया
कल कल ये बहती
प्यारी सी नदिया
सभी कुछ रखा है
वैसा का वैसा
मेरे दिल में तेरी
मुरत के जैसा
तुम बिन नहीं है
कोई सांस बाकी
बुझने लगी अब
लौ जिंदगी की
चले आओ इक पल
दिन ढलने से पहले
यादों को तन से
निकलने से पहले
कोई डोर ऐसी जो
मन को है खिंचे
दर्द छुपा कर
पलकों के नीचे
नदी के किनारे
उस पर्वत के पीछे
बैठा हूं अब भी
आंखों को मींचे
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© गौतम जैन ®