बेहतर थे बुरे दिन
बेहतर थे बुरे दिन
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अच्छे दिनों से कहीं बेहतर थे,
वो पुराने जो थे बुरे दिन,
स्वच्छ नीर से साफ थे,
झूठे बिल्कुल भी नहीं ख्याब थे,
उनमें न तो दिखावटी सजावट थी,
और न ही कृत्रिम बनावट थी,
जो भी दिन में मेहनत से कमाते थे,
खुशी खुशी परिवार संग खाते थे,
उम्मीदों की बेबुनियाद ,
चकाचौंध ने बना दिया है,
निकम्मा,निठल्ला,नकारा,
बेसहारा,आवारा,
और निकाल दिया दिवाला,
पंद्रह लाख का खोखला गोलगप्पा,
मुँह के बीच में ही फुट गया कहते हैं अप्पा,
क्या भरोसा करें फिसलती जुबान का,
देख लिया है खूब सौदा फीका है ऊँची दुकान का,
अपना घर और किए कर्म ही होता है सच्चे
नहीं उड़ जाता है मजबूरी में मजबूत परखच्चे,
सदियों से सुनते आये वही की वही कहानी,
सभी को पड़ती है मुँह की खानी,
कब तक दें झूठी मन को तसल्ली,
मनसीरत कहते हैं बहुत दूर है अभी तो दिल्ली…..।