बेहतर ग़ज़ल
मानवीय मनोवृत्ति
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जिन्दगी की शाम आये ना कभी, हर समय है सोचता इंसान ये।
मैं रहूँ जिंदा मरे दूजा कोई, हर समय है सोचता इंसान ये।
जिन्दगी में हो हमेशा भोर ही, रात से बस हो कभी न सामना-
हम रहे खुश हो भले गम और की, हर समय है सोचता इंसान ये।
रात आये तो सुहानी रात हो, भोर आने की सबब पर बात हो-
हो दिवाली की चमकती रात ही, हर समय है सोचता इंसान ये।
जिन्दगी हँसने हँसाने की सबब, बन सके ऐसा यहाँ मिजाज हो-
बात रोने की हो रोये और ही, हर समय है सोचता इंसान ये।
जिन्दगी अपनी हो बिस्तर पुष्प की, और की दामन में काटें हो भले-
दुख मिले उसको मिले हमको खुशी,हर समय है सोचता इंसान ये।
✍️पं.संजीव शुक्ल ‘सचिन’