बेसुध मां, लड़खड़ाता पिता
काली अंधेरी घुप्प सी रात,
हृदय में तामसिक छाया है।
एक सिंहनी का “काजल” पोंछकर,
दुष्टों ने नभ पर फैलाया है।
छाती पर मनो भार, पथराई आँखे,
हृदय गले में रुंध आया है।
जननी बेसुध सी पड़ी होगी भीतर,
लड़खड़ाते पावों से बाहर पिता आया है।
रिश्तेदार सभी चुप हैं, आये लोग गुमसुम,
कोई कुछ पूछता नहीं, डर है,
पूछा तो वो बिखर जायेगा,
फफक पड़ेगा, गिर जायेगा।
अंतर्मन में ज्वाला तांडव करती है,
पहाडों हीम से ढक कर आया है।
जननी बेसुध सी पड़ी होगी भीतर,
लड़खड़ाते पावों से बाहर पिता आया है।
आश्चर्य होता है,
रिश्तेदारों के अलावा इस जघन्य को,
पाप कहने वाला कोई नहीं।
इस अत्याचार का प्रतिकार करने वाला कोई नहीं।
अश्रुओं ने भी जात देख कर बहना सीख लिया है,
संवेदनाओ ने भी अवसरों पर झरना सीख लिया है।
पीड़ा होती तो बहुत है पर,
पराया कष्ट समझ कर मन को समझाना सीख लिया है।
बागपत में नेता थे,
पत्तलकारों के मज़मे, सब अभिनेता थे,
बेटी दलित थी,
राजनीति और प्रोपगैंडा को यही तो भाया है।
जननी बेसुध सी पड़ी होगी भीतर,
लड़खड़ाते पावों से बाहर पिता आया है।
पर ऐसा नहीं है,
न्याय करने वाला वर्ण,
जातिगत फ़ैसलों पर झुका नहीं करता।
छोटी मोटी आँधियों के भय से,
विकराल काल कभी रुका नहीं करता।
काल करवट लेगा,
न्यायदंडिका फ़िर चाबुक बन कर बरसेगी।
सब स्वाहा होगा
जब अग्नि पावक बन कर धधकेगी।
त्राहिमाम के घोष में, एक मेघ दिप्त होगा,
तुम देखोगे बौछारों पर सवार महाकाल आया है।
तब जननी मंद मुश्काती दुष्टों का संहार देखेगी,
और पाप को छीण कर पिता चिता पर लाया है।
क्रव्याद, क्रव्याद, क्रव्याद।