बेवफाई की फितरत..
मैं उसकी जमीन पर,
खुद को खुदक़िस्मत समझती रही,
वो हाथ पकड़कर मेरा आगे बढ़ता रहा,
मैं उसकी परछाई में खुद को फना करती रही ।।
मेरे सपने एक एक कर,
उसकी कड़ी से कड़ी जुड़ने लगे थे,
उसकी हर चाहत के रंग,
मेरे ऊपर गहराई से चढ़ने लगे थे ।।
हर रात चाँदनी रात मदहोशी में गुजरने लगी थी,
एक चादर और एक तकिए पर नींद आने लगी थी,
उसके हाथ मेरे जिस्म के हम सफर हो गए थे,
मेरा जिस्म उसके ज़िस्म का हमनवां हो गया था ।।
मेरा जिस्म उसके ज़िस्म में लापता हो रहा था,
रूह का जो दायरा था वो भी अब खत्म हो रहा था,
मेरी रूह का वो सिपहसालार पहरेदार हो गया था,
मैं उसकी कली वो मेरा फूल हो गया था ।।
वो हर बार कुछ सीढ़िया ऊपर चढ़ रहा था,
मैं एक ही सीढ़ी पर उसका हाथ पकड़कर बैठी रही,
वह मुझसे बहुत दूर जा चुका था,
मैं उसकी परछाई को अपना रहगुज़र समझती रही ।।
मेरी नजरें उसके प्रेम में पर्दानशीं थी,
उसकी फितरत में हैवानियत लिखी थी,
वो अपनी अदाकारी से तालियां बटोरता रहा,
मैं उसकी अदाकारी पर हँसते हुए तालियां बजाती रही.।।
मेरी फिरतर ऐसी थी कि वो हँसते हुए धोखा देता रहा,
और मैं हँसते हुए प्रेम में धोखा खाती रही,
उसने नयी खुशबू नया फूल चुन लिया था,
मैं टूटकर बिखरी पड़ी अपनी पंखुड़ियां सुखाती रही.।।