बेला
सुंदर कोमल स्वेत धवल सा,
फूल रहा बगिया में बेला
लू के गरम थपेड़ों से वो
तपता ही रहा दुपहरी भर
हुई चांदनी रात खिला फिर
हर्षित मन से वो मुस्का कर
कभी न लगता उसे देख कर,
कितनी गरमी है वो झेला
रूप गन्ध से वो सबका मन
रोज शाम को मोह रहा है
मानो हो व्याकुल गरमी से
मन की गांठे खोल रहा है
गरमी के सारे फूलों में,
छाता है मदमस्त अकेला
शिव के मंदिर में चढने को
पूजा का पावन हार बने
और कभी सज बालों में वो
सुरबाला का श्रृंगार बने
कर मनुहार कभी प्रियतम से,
महकाये संध्या की वेला
खुश है वो अपने गुलशन में
चंपा और चमेली के सँग
झुक जाता है संग हवा के
सहज सरल है जीवन का ढँग
दिखता है सबसे अलग थलग,
पुष्प बहुत है ये अलबेला