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26 Mar 2018 · 1 min read

बेरुखी (ग़ज़ल)

बेरुखी”
रदीफ़–बैठे हैं
काफ़िया-आके
दिखाते बेरुखी चिलमन गिराके बैठे हैं ।
मिजाज़े बादलों सा रुख बनाके बैठे हैं।

नज़र में शोकियाँ दिखती अदा में उल्फ़त है गुलाबी हुस्न में काँटे बिछाके बैठे हैं।

कसूरे चाँद का क्या दाग मुख पे उसके है नकाबे हुस्न में जलवा छिपाके बैठे हैं।

सँजोए ख़्वाब नीले आसमाँ की बाहों में उड़े तन्हा यहाँ महफ़िल सजाके बैठे हैं।

मुझे ना तोड़ तू इतना किसी सी जुड़ जाऊँ कहा तो आसमाँ सिर पे उठाए बैठे हैं।

बुलाऊँ पास तो उनको बुलाऊँ मैं कैसे हिना की हसरतें पाँवों लगाके बैठे हैं।
वफ़ा की राह में खुद बेवफ़ाई की यारों उजाड़ा घर नई दुनिया बसाके बैठे हैं।

तुम्हारी बेखुदी ने आज ऐसा लूटा है सजाए मौत को दुल्हन बनाके बैठे हैं।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज, वाराणसी
संपादिका- साहित्य धरोहर

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