बेबसी
बेबसी का है ताना बाना बन्धन की पोशाक
मुक्त पाँव कैसे धरूँ धरा पर, बढूं कैसे बेबाक
है कुंठित मन और भाव बने हैं शूल
अब है कंटक से असीम स्नेह चाह नही अब फूल
अब है मरुस्थल सा विस्तार,विटप की न कोई छाँह
नीम गति सा जीवन है, छालों में भर भर जाती धूल।।
है उदित मुदित अब काल लोक में,स्वप्न बना संसार
मृगमरीचिका सी विचरू न पाऊँ कोई आधार
मुस्कान में गहरी रेख छुपाए,मन छलनी संताप
शरण न जाऊँ देवों की न मैं लूँ पांव पखार।।
है गहन अंधेरा वीराना जीवन का चढ़ाव-उतार
भंवर बाधित नैया है कैसे पा जाऊँ पार
है साक्षी ये सांध्य के तारे एकटक जिनको रही निहार
भावों की धौकनी बार-बार क्यों करते मुझपर प्रहार।।
-शालिनी मिश्रा तिवारी
( बहराइच, उ०प्र० )