बेबसी हार गयी !व्यवस्था मार गयी!!
पिछले पांच-चार दिन,
खुब सियासत की बिसात चली है
मजदूरों को घर पहुंचाने का नाटक बाजी रही है,
कांग्रेसियों ने सरकार से बसों को चलाने का आग्रह किया,
सरकार को इस पर विचार करने में भी समय लिया,
फिर उन्होंने यह प्रस्ताव स्वीकार किया,
और बसों की संख्या की सूची देने को कहा,
कांग्रेसियों ने भी हबड-तबड में, सूची को पहुंचाया,
सरकार ने उसका परिक्षण कराया,
सूची में सरकार ने दोष पाया,
और कांग्रेसियों को फरेबी बताया।
कांग्रेसियों ने कहा, जो कमी है उसका निवारण करेंगे,
आप स्वीकृति प्रदान करो,हम कमियों को दूर करेंगे,
फिर सरकार ने कहा, इन्हें राजधानी में पहुंचाओ,
कांग्रेसियों ने कहा, वहां खाली बसों को भेजने का कारण बताओ,
हमारी बसें, राज्यों की शरहदों पर खड़ी हैं,
और यहीं पर लोगों की भीड़ भी लगी है,
सरकार को यह अंहकार पसंद नहीं आया,
और उन्होंने इस मामले को लेकर सख्त रुख अपनाया।
इस प्रकार से इन बसों का संचालन ठप्प ही रहा,
मजदूर बसों की प्रतिक्षा में, वहां पड़ा रहा,
वह समझने लगा था कि इसमें सरकार का खोट है,
और हम पर यह सरकार की अप्रत्याशित चोट है,
उन्हें शायद लगता है,यह कांग्रेसियों का वोट है,
इसी लिए यह उनकी खामियों की ओट है।
सरकार ने भी एक चाल चल दी,
बसों को चलाने की अनुमति देने में ढील कर दी,
वह कांग्रेसियों के धैर्य की परीक्षा में लगे थे,
इधर कांग्रेसियों के धैर्य अब टूटने लगे थे,
उन्होंने एक समय सीमा तय करके बता दी,
और वह समय सीमा बीतने पर बसें लौटा दी,
अब लोगों में यह चर्चा चल पड़ी है,
इससे किसकी प्रतिष्ठा बढ़ी है,
क्या इससे सरकार को फायदा पहुंचेगा,
या इससे कांग्रेसियों का ग्राफ बढ़ेगा,
जिस प्रकार से इस नाटक का पटाक्षेप हुआ है,
उसमें तो घाटा मजदूरों का ही हुआ है।
हताश है वह मजदूर,जिसको थोड़ी तो आस बंधी थी,
जिसके लिए उन्होंने वहां पर अपनी भीड़ जमा की थी,
थक-हार कर वह आगे बढ़ने को व्याकुल हो रहे हैं,
और पार्टियों के दोहरे चरित्र को देख रहे हैं,
हम तो हार गए हैं बेबसी की चाल में,
और वह जीत गए हैं, व्यवस्थाओं की ढाल में।