बेबसी (शक्ति छन्द)
सड़क के किनारे पड़ी बेटियाँ
कहीं से उन्हें ना मिले रोटियाँ
ग़रीबी विवशता रुलाती उन्हें
सदा भूख भी है सताती उन्हें ।।
निवाला बने जो पिता काल के
ख़ुसी भागती रात दिन टाल के
सहारा दिखे ना बिलखतीं रहें
हवा सर्द हो तो सिहरतीं रहें ।।
गयी माँ कमाने उन्हें छोड़कर
फटा ही वसन ओढ़ लीं मोड़कर
ख़ुसी नाथ उनसे बहुत दूर है
मुसीबत मगर पास भरपूर है।।
दिखे चित्र में मात्र इक बानगी
बिना स्वप्न जिनकी यहाँ ज़िन्दगी
हजारों पड़े हैं इसी हाल में
बिलखते दुखों के भवँर जाल में।।
नहीं पास जिनके यहाँ झोपड़ी
समस्या सदा झेलते वे बड़ी
मिले छाँव उनको न बरसात में
बहुत झेलते सर्द की रात में।।
बताये दशा आँख उनकी धँसी
न रौनक दिखें औ दिखें ना हँसी
रहें बाल बिखरे अजब ढंग से
रहें जूझते हर कदम जंग से।।
नवंबर दिसम्बर मई जून हो
बदन मे भले ही नहीं खून हो
लड़ाई लड़ें वे सदा भूख से
मगर हारते भाग्य के दुःख से।।
खुला आसमाँ ही ठिकाना बने
वहीं रात दिन आशियाना बने
गिरे वज्र उनपर हमेशा यहाँ
सताये हवा सर्द जाएं कहाँ।।
न घर हो न भोजन रहे दीनता
चिढ़ाती वहीं नित्य स्वाधीनता
अगर बाल भूखा पराधीन है
कदाचित नहीं देश स्वाधीन है।।
नाथ सोनांचली