बेफिक्री का बोझ
बेफिक्र सा देखता है दूर से, आंखों से मजबूर होकर
चलता है झुका कर सिर, भारी बोझ ढोकर।
तपती दोपहरी में गली गली होकर
उमस भरी गर्मी में भूखे-नग्न सो कर।
लड़खड़ाते हैं पांव डगमगा कर ,
कभी भूखे रह कभी आधी पेट खाकर।
वह भाग्य को चमकाने में लगा है,
हमें आइना दिखाने में लगा है।
रूखे बालों में, सूखे निवालों में,
पांव के छालों में, किंचित सवालों में।
एक झुंड जिम्मेदारियां, फिर गंतव्य से दूरियां,
और कचरों की बोझ से लदी टाट की बोरियां।
कुचल रही है हौसलों को, अरमानों को,
कोंपलें नुमा होनहार विरवानों को।
कमजोर करतीं हैं हुनरमंद हाथों को,
दिखाती है आईना झूठे सियासी वादों की बातों को।
कल कीचड़ में सने हुए देखे मैंने उनके पांव,
फिर रह रह हरी हो रही थी उनके सदियों के घाव।
पर मुख पर शिकायतों की सिकन भर नहीं पड़ी थी,
क्योंकि उसकी मां अभी समीप जीवित खड़ी थी।