बेतुकी शायरी के उन्मान
डॉ अरुण कुमार शास्त्री
एक अबोध बालक : अरुण अतृप्त
ग़ज़ल को भी गीत के मानिंद गा दिया करता हूँ मैं
सुर लगाना तो आता नही है ताल पर ही गुनगुना लिया करता हूँ मैं ।।
रौशनी जब दिखाई देती नहीँ है चराग़ों में यारा
तो अंधेरे से ही काम चला लिया करता हूँ मैं ।।
लोग ठोकर लगा जाते हैं बिन बात के मुझको
शुक्रिया कह कर के उनको भुला दिया करता हूँ मैं ।।
आदमी हूँ आदमी ही पैदा हुआ था अच्छा खासा
लोग न माने तो फिर पागलों सा बन जाता हूँ मैं ।।
तुम से करूँ शिकायत तो किस बात की करूँ बता
किस्मत में लिखा कर जो लाया हूँ वो तो अब कहाँ मिटा सकता हूँ मैं ।।
वो भी एक वक्त था जब मैं भी सहूलियत से किसी के घर का था राज दुलारा
ये भी एक वक़्त है के उसी वक़्त ने मुझको वे वक्त का बनाया है मोहरा ।।
ऐसा नहीं है कि मेरा वक़्त नही आने वाला
ये बात और हैं कि तब तलक मैं कहाँ टिकने वाला ।।
हर कोई अपनी जिंदगी से खुश कहाँ रहता है अबोध
दौलत भी है शोहरत भी है सेहत भी है फिर भी
किसी न किसी बात पर ग़मज़दा रहता है ।।
आदमी को चाहिए क्या एक लंगोटी और दो वक़्त की रोटी और सिर पे छत यही ना
लेकिन नही वो तो सब कुछ होते हुए भी बेचारगी सा मुँह बनाये रहता है ।।
कभी तो मेरे मालिक का शुक्रिया किया कर अबे नाशुक्र बालक
जितना दिया है तुझको उसी से सब्र किया कर अबोध बालक ।।
इस वे वक़्त की शायरी से अब किसी का है भला होने वाला तो नहीं
यूँ लिख लिख कर बेकार की बातों से किसी के वक़्त को जाया किया करते नहीं ।।
चलो आज से एक नग़मा कुछ खास ऐसा भी बनाया जाये
जिसमें किसी मजबूर लाचार के हाँथ को कोई काम देकर सहलाया जाये ।।
ग़ज़ल को भी गीत के मानिंद गाया जाये सुर लगाना नही आता है तो कोई ग़म नहीं
वक़्त की ताल पर ही बेसुरे में कोई गीत गुनगुनाया जाये ।।