बेटी
जाने कितने दर पर सर झुकाया है
तब जाकर मैंने बेटी को पाया है।
जब तू नन्हे कदमों से चलती है,
सुलगते मन को बर्फ सी लगती है।
वह मुझे मां कहकर पुकारती है
मासूम आंखों से मुझे निहारती है।
मालिक ने मुझ पर रहम खाया है
तब जाकर मैंने बेटी को पाया है।
बेटी के साथ में खेला करती हूं मैं,
पीठ पर बैठाकर घोड़ा बनती हूं मैं,
नन्हे हाथों से मेरा बाल सजाती है,
और नहीं तो मेरा पफभी बनाती है,
कई साल तक इंतजार करवाया है,
तब जाकर मैंने बेटी को पाया है।
मिट्टी, कंकड़ से खाना बनाती है,
झाड़ू, बर्तन और पोछा लगाती है,
नित नए कपड़े, खिलौने मांगती है,
सुबह देर से उठने पर डांटती है,
लोगों के तानों से खुद को तड़पाया है,
तब जाकर मैंने बेटी को पाया है।
नूर फातिमा खातून” नूरी”