बेटी
आज मैंने देखा है-
एक कली मुरझाई सी
कैद स्वर्ण पिंजरे में
थोड़ी क्षुब्ध थोड़ी शरमाई सी।
आज मैंने देखा है-
अंजन भरे लोचन से
स्वप्नाश्रु झरते हैं
अधरों पर मुस्कान लाती है
वह बुलबुल घबराई सी।
आज मैंने देखा है-
उत्कण्ठिता के नयनों को
दिवा-स्वप्न में खोई सी
रोती दीप-राग में-
बन प्रिय-पराई सी।
आज मैंने देखा है-
वह मीठी कूक से
दिवस को राह दिखाती-
भटकती वह अंतःवन में
मृगलोचनी भरमाई सी।
द्वारा–ऋतुराज