बेटी से ही संसार
वेदों ने रचना कर डाली ।
स्वर्ण मयी आभा सी वो ।।
निर्मल गंगा बहती आयी ।
वसुधा के धरातल को ।।
स्वर्णमयी हो गया है युग ।
सृष्टि की रचना कर डाली ।।
प्रस्फुटित हो जाएगा जग ।
जगकर्त्ता ने बेटी रच डाली ।।१।।
आ गयी चेतना चेतन को ।
वेदों को उसने पढ़ डाला ।।
सृष्टि चल सके आगे को ।
उसने पुरुषतत्व जन्म डाला ।।
धीरे धीरे आगे चल के ।
सृष्टि संपूर्ण उसने रच डाली ।।
ये ममता ही तो थी उसकी ।
उसने सृष्टि सुखों से भर डाली ।।२।।
आज कैसा निर्दयी सयोंग ।
आभा रोती ममता वियोग ।।
भ्रूण रूप धरे गर्भ में जो ।
वहाँ हत्या का बन जाता योग ।।
कैसे विचरण करेगी सृष्टि फिर ।
या सब कुछ रुक जाएगा ।।
बिन बेटी के इस सृष्टि का ।
कार्यकाल थम जाएगा ।।३।।
काल को ना निमंत्रण दो ।
जो सब कुछ कर सकता हो ।।
जिसने आभा को रच डाला ।
उस सृष्टि करता को दुःख ना दो ।।
सृष्टि शून्य हो जाएगी ।
और सब कुछ मिट जाएगा ।।
रचनाकर्ता की रचना पे ।
जब हस्तक्षेप हो जाएगा ।।४।।
उठकर जागो हे मानव ।
खत्म करो मन के दानव ।।
बुद्धि को प्रबल करो ।
सृष्टि का सृजन करो ।।
इस जीव जगत में प्रेम सीखा दो ।
और सीखा दो ममता के गुण ।।
बेटी से ही जन्म होता है ।
नव प्रकाश के नव नव गुण ।।५।।
लेखक- प्रकाश चंद्र जुयाल
कविप्रकाश